कहते हैं कि औरों का गम देखा, तो मैं अपने गम को भूल गया। ये एक शायरी हो सकती है, लेकिन इसे जीनेवाले भी हैं दुनियाँ में।
बहुत दूर नज़र दौड़ाने की ज़रुरत नहीं, देवघर में एक देवी मनुष्य रूप में ऐसी ही मिल जाएगी। नाम है रीता राज। रीता ने सेवा को अपनी रीत बना रखी है , और राज ये कि पता नहीं क्यूँ कलमबाज़ों की नज़र उनपर नहीं पड़ती। हँलांकि सभी ऐसे नही, पत्रकार आशुतोष झा ने बीते कल रीताजी को बताया कि एक बुजुर्ग को उसके घरवाले बीमार स्थिति में अस्पताल छोड़ गए हैं। कोई घरवाला उनकी हालत जानने और घर लिवा जाने तक नहीं आया।
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पत्रकार आशुतोष से ख़बर मिलते ही दौड़ पड़ी रीता अस्पताल की ओर। बुजुर्ग से मिली, हालात जानी। ममतामयी मातृस्वरूपा ने पहले उन्हें मिठाई खिलाई और भी बहुत कुछ खिलाया। अपनी ममतामयी बातों से उस अनजान बुजुर्ग के दिलोदिमाग को सहलाया। फिर उनके बेटे से फोन पर बात की। चूँकि पत्रकार आशुतोष जी वहाँ थे तो कुछ चित्र भी क्लिक हो गया।
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अब बुजुर्ग के घर तक वापस जाने में मदद तो रीता करती रहेंगी, लेकिन सिर्फ़ इतना भर रीता नहीं हैं। गरीब बच्चों को क़िताब, वस्त्र और जन्मदिन या कोई त्योहार का बहाना बना रीता सेवा की अपनी रीत चलाती रहतीं हैं। इसलिए उन्होंने एक संस्था तक बना डाली। उनकी सहेलियाँ और पहचान वाले उनके संस्था की मदद कर रीता को अपनी ममता बाँटने में सहयोग करती है, लेकिन आशुतोष जैसे कोई और उनके साथ खड़ा नही होता। परिणामस्वरूप रीता जी राज ही बनी हुई हैं, उनके कार्यों को जो सराहना मिलनी चाहिए, वो नहीं मिल रही।
कोई अकेली अगर चली है ऐसे राह पर, जो मजबूरों-कमज़ोरों की दर्द को सहलाती है, तो इस मातृस्वरूपिणी को समाज ने सिर्फ़ राज भर बनाकर क्यूँ छोड़ रखी है। क्या हम सभी उनके साथ खड़े नहीं हो सकते ? ये सवाल मुझे कुरेदती है। शायद रीता राज जी को कुरेदती होगी।
खैर उस बुजुर्ग को रीता जी ने तो अपनी ममता से सींचा है, लेकिन उनके घरवालों को भी मद्धम पड़ी उजाले को घर ले जाना चाहिए। वे लोग ये न भूलें कि इसी बुजुर्ग ने अपनी जवानी में दिया बन जलकर पूरे परिवार को रोशनी दी होगी।