Wednesday, October 16, 2024
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वाचिक विराम: प्रोफेसर मनमोहन मिश्र की अनुपम यादें और विचार

अपने बाल सखा श्रीकांत तिवारी के शव को श्मशान में ले जाते वक़्त अपने बूढ़े कांधे पर चचरी को लेते हुए, उन्होंने अनायास ही कहा, “चलिए पंडित आपको आपकी अंतिम यात्रा में अगुआ आएं, आप हमेशा सीनियर रहे, यहाँ भी आप ही सीनियर सही, मैं पीछे से आता हूँ, जगह हमरो राखियो पंडित” और फ़िर छलक पड़े थे उनके आँसू ऐसे
प्रोफेसर स्वर्गीय मनमोहन मिश्र का नाम लेते ही पाकुड़ में एक ऐसे व्यक्तित्व का चेहरा उभर कर सामने आता है, जिनके शब्दों की जादूगरी से हिन्दी साहित्य की समृद्धि का ज्ञान होता है। साहित्य की जितनी विधा है, उन सबके जीवंत रूप थे, अनजाने मन को भी मोह लेनेवाले के के एम कॉलेज पाकुड़ के प्रोफेसर, नगर के सर और मेरे काकू स्वर्गीय मनमोहन मिश्र।

उनके चिर विश्राम में गए कई वर्ष बीत गए, लेकिन हर सुबह आज भी उनकी आवाज़ सुनाई पड़ती है। मेरे पिता के बाल सखा रहे मिश्र साहब उसी कॉलेज में तथा उसी विभाग में व्यख्याता थे, जिसमें पिता श्री स्वर्गीय श्रीकांत तिवारी थे। इसलिए प्रतिदिन सुबह मेरे आवास पर वे आते और दरवाजे पर से ही पंडित की आवाज लगाते। हाँ इसी नाम से वे मेरे पिता को पुकारते थे। घण्टो उनकी बातें मैं सुनता। हिन्दी के व्यख्याता मनमोहन मिश्र में किस विषय की गहरी जानकारी नहीं थीं, यह कह पाना असंभव था।

प्रभात खबर
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साहित्य, इतिहास, अध्यात्म के हर पहलू और उसका विश्लेषण तथा उनपर उनका अनवरत वाचिक प्रस्तुतिकरण अविस्मरणीय था। किसी विषय पर उनको घण्टों सुनना एक विहंगम अनुभूति देता था।

वरिष्ठ पत्रकार, मेरे मित्र और मनमोहन मिश्र के पारिवारिक शिष्य डॉ० आर के नीरद की उनपर लिखी पुस्तक में उनके विषय में विस्तार से लेखन एवं संकलन ने उनपर कुछ और लिखना असम्भव सा कर दिया है। ये पुस्तक मिश्रा जी के साहित्यिक जीवन के तकरीबन हर पहलू को छूता है। (अमेजन पर यह पुस्तक एभेलेबुल है)

उनकी प्रत्युतपनमतित्व और व्यंग पर कुछ ना कहूँ तो शायद अन्यथा हो। एक बार वो मेरे पिता एवं की प्रोफेसरों के साथ मेरे बरामदे पर बातचीत में व्यस्त थे। इसी बीच एक बकरी आँगन में घुसकर फूल के पौधों को खाने लगी, मैं उसे बाहर करने दौड़ा, अचानक वे उठे और बकरी को बमुश्किल पकड़ लिया, उनके आदेश पर मैंने उनके साथ बकरी को करवट कर लिटा दिया, उन्होंने अपने रुमाल को उसके कान पर रखकर एक छोटे से ईंट के टुकड़े को रख दिया। पता नही बकरी इसके बाद घण्टों सोई रही। उसके बाद जब बकरी की मालकिन उसे ढूँढते वहाँ आई तो, बड़े आदर से उन्होंने बकरी की मालकिन से कहा आइये, आपकी बकरीरानी खाना खाकर आराम कर रही है। वहाँ उपस्थित सभी लोग हँस रहे थे, लेकिन मैं अचंभित था कि ज्ञान के इस महाभण्डार में, तथा वाचिक परम्परा के इस गम्भीर महानायक में आज भी एक नटखट बचपना कैसे जिंदा है!

उनके जीवंत व्यंग की दस्तानों में वो वाकया अचानक आज भी गुदगुदा जाता है, जब उन्हें अप्रेल के महीने एक सहकर्मी व्यख्याता ने यह कहा कि अब तो जूता उतार दिया जाय सर, मिश्रा साहब ने तपाक से जवाब दिया नहीं नहीं आपके सुधर जाने की सूचना मिल चुकी है। वहाँ ठहाकों की सम्मलित गूँज थी। किसी बात की क्षणभर में सार्थक प्रतिक्रिया व्यंग की चाशनी में लपेटकर कर देना उनकी विशेषता थी।

उनके मूल गाँव में बारात जाते समय लोग बरातियों में उनकी उपस्थिति की शर्त रखा करते थे। उस समय बाराती और शरतियो के बीच शास्रार्थ की परंपरा थी और प्रोफेसर स्वर्गीय मनमोहन मिश्र की उपस्थिति शास्रार्थ में विजय की गारण्टी होती थी। ज्ञान की पराकाष्ठा का दूसरा नाम थे मिश्रा काकू।

आर के नीरद की पुस्तक, शोध, पत्रकारिता, मेरी पत्रकारिता और न जाने कितने ही शब्द सन्यासियों को प्रोफेसर स्वर्गीय मनमोहन मिश्र ने दीक्षित किया। आज वे उसपार से भी अपने शिष्यों का मूल्यांकन कर रहे होंगे, लेकिन हम और हमारे शब्दों को एक ऐसा सूनापन लगता है, जिसे शब्दों से बयां कर पाना सम्भ नही। वाचिक परम्परा के मिश्रा सर पर कुछ भी लिख पाना हमेशा कम बहुत ही कम रहेगा। सहस्र नमन।

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