पाकुड़ में बिजली का गुम होते रहना इस भीषण गर्मी में एक समस्या है। लोग हैरान परेशान हैं। समाचार माध्यमों द्वारा बिजली समस्या पर वक़्त बेवक़्त काफ़ी लिखा जाता है।
बड़े नेताओं की तो छोड़िए, छुटभैय्ये नेता भी बिजली की अंधेरी दुनियां में चिल पों कर अपनी नेतागिरी को चमका रहे हैं।
उधर उपायुक्त सीएसआर फंड पर बैठकें करते हैं। एक नही लगभग हर माह एक करते है। कोल कम्पनियों से शिक्षा, स्वास्थ्य, खेल, अन्य संरचनाओं के निर्माण, मेडिकल केम्प लगाने आदि पर तलब करते हैं।
कुल मिलाकर विस्थापितों को सभी सुविधाएं उपलब्ध हो इसकी तलब कर जानकारी लेते हैं और उसके विस्तार तथा सही रूप से संचारण हो इसका निर्देश भी देते हैं। लेकिन जो लोग विस्थापित नहीं हुए, कोल कम्पनी उनका हिस्सा और अधिकार जो हड़प रहे हैं, उस ओर जाने-अनजाने न तो राजनीति और न ही शासन-प्रशासन की नज़र जाती है। न कोई आंदोलन न ही निर्देश दिया जाता है।
एक बड़े उद्योग के लगने पर उसे बड़ी मात्रा में बिजली की भी आवश्यकता होती है। कम उत्पादन वाले झारखंड में पाकुड़ वासियों को जो उनके उपयोग के लिये बिजली मिलती है, उसमें पहले से ही क्रशरों द्वारा बिजली की खपत बड़े पैमाने पर थी, अब विद्युत उत्पादन करनेवाली कम्पनी एक खनन करनेवाली कम्पनी से खनन करा रही है। अर्थात दो दो बड़ी कम्पनी काम कर रही है, और हमारे हिस्से की बिजली खपत कर रही है, जबकि इन कम्पनियों को अपनी खपत की और विस्थापितों सहित क्षेत्र के विकास के लिए “केप्टिव पावर प्लांट” लगाने की आवश्यकता और नियम भी है। इसके लिए जरूरी नहीं कि स्टीम पावर प्लांट ही लगाएं, बल्कि नदी नालों के किनारे पर सोलर पावर प्लांट लगा कर भी अपने, अपने विस्थापितों की आवश्यकता लायक एक से पाँच मेगावाट विजली उत्पादन करना चाहिए, लेकिन ऐसा है नहीं, जबकि हमारे यहाँ से कोयला ले जाकर ये बिजली ही उत्पादन कर रहे हैं।
कुछ दलाल टाइप लोग के कारण, और हमारे कमजोर कम पढ़े लिखे जनप्रतिनिधियों की अकर्मण्यता हमारे हिस्से के अधिकार लूटने के बाद भी एक दम से दम मारे रहते हैं। कभी कभी विस्थापितों के लिए आवाज़ उठाते भी हैं, तो वो आवाजें चाँदी के जूतों से बंद करा दी जाती रही हैं। बदकिस्मती हमारी कि गर्मी की तपिश में भी हमारी जनता बिना बिजली के रहने को मजबूर रहती है, और हमारे हक़ मरनेवालों के आँगन में बिजली की चकाचौंध है।