पाकुड़ नगर के नाम के पीछे एक किंवदंती प्रचलित है, कि बंगला के “पुकुर” शब्द के अपभ्रंश से इस नाम की उतपत्ति हुई है। वस्तुतः बंग्ला के “पुकुर” का अर्थ होता है तालाब। तालाबों के इस शहर को हमारी पीढ़ी ने अहसासा है। कहीं भी खड़े खड़े हम विद्यालय जाते तकरीबन दस तालाबों के नाम गिना जाते थे। हर फलांग भर की दूरी पर तालाबों के नाम बदल जाते। कहते हैं नगर के दो किलोमीटर के रेडियश में सौ से ज्यादा तालाबों वाले पकौड़ को लोगों ने अपने बंगाल की संस्कृति से रचे बसे मिज़ाज के कारण पाकुड़ पुकारने लगे, जिसमें पुकुरों (तलाबों) की बहुतायत उपस्थिति ने भी अपना प्रभाव जरूर डाला होगा।
अब बंगाल की संस्कृति गलियों में सिमट गई और सड़कों पर मिलीजुली संस्कृति ने कब्जा जमा लिया और तालाबों पर अट्टालिकाएं इठलाने लगीं और जमीन माफियाओं की तिजोरियां तथा पेट फूलने लगे, उनके चेहरों पर अपनी ताक़त के अभिमान गुर्राने लगें।
तालाब भरने लगे कुछ सरकारी अमलें मिली भगत से सेठ बनते गए, अपनी अगली पीढ़ी के लिए अगाध जमीन जुटाने लगे। लेकिन जो बहुमूल्य चीज़ खोते गए वो था भूगर्भीय जल, जो नीचे और नीचे भागता गया।
आपको आश्चर्य होगा यहाँ कई महल्ले ऐसे हैं, जहाँ की अट्टालिकाएं समृद्धि का एलान करती हैं, तो उनके सबसे ऊपर पड़ी टँकीयाँ और बाथरूम की सूखी टोटियाँ दरिद्रता की दास्तान कहती नज़र आतीं हैं। इतराते बिल्डिंगों में पानी की बिंदी तक की नदारत रहना उनकी वेधब्यता की गवाही कहती है। तालाबों के शहर पाकुड़ में भूगर्भीय जल की कमी अदूरदर्शिता के परिणाम के सिवा क्या है!
कई बार पानी के लिए पानी-पानी हुए शहर के कुछ हिस्से के लिए आंदोलन के राह देखे हैं। लोगों ने आंदोलन का साथ भी दिया। कमोबेश पानी सप्लाई हुआ फिर बंद.. फिर मिला। मतलब पानी पाइपों में आया और धोखे भी खिलाते-पिलाते रहे।राज उच्च विद्यालय सड़क इलाके के लोगों के कूएँ सूख गए, सार्वजनिक बोरिंग, निजी बोरिंग सब के हलक सूख गए। मॉनसून आया, बारिश हुई, लेकिन सब भूगर्भीय जलस्रोतों के पेट पाताल ही छुए रहे।
कारण तालाबों का धीरे धीरे विलुप्ति। राज उच्च विद्यालय सड़क पर कंक्रीट के जंगलों के पीछे छुपे एक तालाब को फिर से भर दिया गया। (तालाब भरने के क्रम की तश्वीर, जो अब पूरी तरह भरा समतल मैदान सा नज़र आता है) तालाबों के शहर पाकुड़ में विलुप्त होते तालाबों पर किसी की जुबान नही खुलती। भूगर्भीय जल का मुख्य स्रोत ही भर दिए जाएं तो…….
संथालपरगना काश्तकारी अधिनियम 1949 की धारा 35 (1) को मुँह चिढ़ाते हुए दबंग सफेदपोशों ने उसी सड़क पर मौजा पाकुड़, खाता संख्या 477, दाग नम्बर 1230 पर स्थित पोखर को भर दिया गया।
बारिश तो हुई पर भरे मिटी-गिट्टी भरे तालाब में पानी नही भरा। लेकिन आश्चर्य आसपास के सूखे कूएँ वालों ने चुप्पी ओढ़ ली।
ऐसे में आंदोलन और लोगों की दबी पड़ी विरोध क्या भूगर्भीय जलस्रोतों को आबाद कर सकता है? एक ज्वलंत सवाल है, पर जवाब कौन देगा हजूर?
आश्चर्य है, जिनपर तालाब भरने की चर्चा गर्म है, उनका घर भी इसी ड्राय जोन में पड़ता है !😢
उस इलाके के एक सज्जन ने आज मुझसे कहा, पानी की किल्लत के लिए घर बेच कर चला जाऊँगा। उनकी बातों से आहत हो कर स्वयं को रोक नही सका, ख़ुद से सवाल किया-
“क्या किस्मत ने इसलिए चुनवाये थे तिनके,
कि बन जाए नशेमन तो कोई आग लगा दे?”
नए डीसी साहब यहाँ यह चुनौती है, क्योंकि तालाब भरनेवाले लोग राजनीति की सेफ छाँव में हम जैसी आवाजों को मुँह चिढ़ाते हैं। कई चुनोतियाँ यहाँ मुँह बाए खड़ा है। गंगा के पानी को पाइपों में समेटने के इंतजार तो हम पाकुड़वासी एक दशक से ज़्यादा समय से कर रहे हैं, खैर अगर हमारे तालाब आबाद रहते तो गंगा की अविरल धारा की हम यूँ चंचलता नहीं छीनते। लेकिन कंक्रीट के जंगलों के बीच हमारा अंतिम सहारा अब पाइपों से आता गंगाजल ही है, लेकिन ये कब आएगा हजूर ए आली इसपर भी नजरें इनायत रहे।🙏