Friday, November 22, 2024
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किसी ने मुनासिब नही समझा बुलबुली के माँ के दर्द को जानना

बुढ़िया की दर्द की बेचैनी बन जाती थी मनोरंजन का माध्यम

बात बहुत पुरानी है, है तो 1972 के बाद का वाकया, लेकिन कई तरह की सीख देनेवाली इस कहानी को मैनें 1990 के दशक में ख़ोज निकाली थी। हँलांकि कहानी का किरदार सांवली रंग, दुबली-पतली काया, लगभग कंकाल स्वरूपा, गहरी धंसी गोल आँखें जिनपर मोटा सा कांच का चश्मा, एक सफ़ेद साड़ी में लिपटी झारखंड के पाकुड़ जिले के राजापाड़ा की गलियों में घूमती बुढ़िया हर किसी को दिख जाती थी। उसके मोटे चश्में से किसी को निहारती आँखें न जाने कितनी दर्द की कहानियाँ कहतीं सी लगती थी, लेकिन बुलबुली की माँ के नाम से जाना जाने वाली इसके दर्द को कभी किसी ने जानने और समझने की ज़हमत नहीं उठाई थी।

हाँ बच्चों के झुंड और युवकों के समूह के लिए वो कंकालस्वरूपा बुढ़िया एक मनोरंजन का साधन मात्र था। जिस गली से वो गुजर जाती, मानो बच्चों और किशोरों के समूहों के हाथ कोई मनोरंजन की लॉटरी लग गई हो। महिला की वो काली छाया जिस गली में जाती, बच्चों और किशोरों के समूह से एक आवाज़ आती, “आलू पोटोलेर तोरकारी, बुलबुलीर माँ सोरकारी“।

बस ये आवाज़ बुढ़िया के कान तक पहुँचते ही मानो बुढ़िया को करंट लग गया हो, फिर बुढ़िया के हाथ मे पत्थर और गली में दौड़ लगा कर इधर-उधर भागते लोग। ये ज़रूरी नहीं कि वो पत्थर बुढ़िया उसी पर फ़ेंके जिसने उसे चिढ़ाया हो। वो पत्थर जब बुढ़िया के हाथ से छूटता, तो वो किसी को भी लग सकता था और फिर वो आख़री पत्थर भी तो नहीं होता, पूरी गली, मोहल्ले में तूफ़ान खड़ी कर देती थी वो मरियल सी कंकालस्वरूपा। आख़िर क्यूँ ऐसा होता कि जो हवा के एक झोंखे से ख़ुद को न सँभाल पाने की ताक़त रखने वाली बुढ़िया सिर्फ़ “आलू पोटोलेर तोरकारी बुलबुलीर माँ सोरकारी” बोलने भर से तूफ़ान खड़ा कर देती है। कई बार बिना क़सूर के मैं भी बुढ़िया के पत्थरों का शिकार हो चुका था।

बुढ़िया के पत्थरों ने मुझे कभी उतना दर्द नहीं दिया, जितना उसके गुस्से के कारणों की जिज्ञासा ने मुझे कर रखा था। कई बार बुढ़िया से कारण जानने के मेरे प्रयास ने मुझे बुढ़िया से पिटवा तो दिया, लेकिन मैं कारण जानने में असफ़ल रहा। बुलबुली की माँ, हाँ उसका तो अब नाम भी यही था, अपनी पहचान अपना नाम तक भूल चुकी वो बुढ़िया सिर्फ बुलबुली की माँ के नाम से ही जानी जाती थी।

अपने जीवन यापन के लिए बुढ़िया दूसरे के यहाँ झाड़ू पोछा और बर्तन माँजती थी। जिस घर में वो बुढ़िया बर्तन माँजती थी, उस घरवालों से मेरा अच्छा सम्बन्ध था। मैंनें बुलबुली की माँ के दर्द को समझने और उसकी गहरी धंसी आँखों के पीछे छूपी कहानियों को तलाशने के लिए उस घर के कुँए के पास बैठने की जगह बना ली। बुलबुली की माँ बर्तन माँजती और मैं उससे इधर उधर की बातें कर उसके दर्दों में झाँकने की कोशिश करता, लेकिन उस चिढ़ने वाली सवाल पर पहुँचते ही मैं पिट जाता।

मेरी जिज्ञासा ने न ज़िद छोड़ी और हर एक दो दिन के अंतराल पर बुलबुली की माँ ने मुझे पीटना। उस घर के लोग भी मुझे समझाते छोड़िए, आप क्यूँ इस पगली से मार खाते हैं! गर्म और किसी से न दब कर रहनेवाली मेरी आदतों को जानने वाले उस घर के लोग मेरे पिट जाने की धैर्य से अचंभित थे। लेकिन मेरी पत्रकारिता ने मुझे कभी हार न मानने की सीख दे रखी थी, मैं भी उस बुढ़िया में दफ़न दर्द को निकालने को आतुर था।

एक दिन बुढ़िया सब्जी बनाने वाली एक वज़नदार कड़ाई माँज रही थी, मेरे सवाल पर उसने जवाब में वो कड़ाई मेरे सर पर दे मारी, मेरा सर फूट गया, खून का फब्बारा मेरे सर से निकल पड़ा। इधर मेरे सर से खून निकल रहे थे, उधर वो कंकालस्वरूपा फूट फूट कर रो रही थी, मेरे सर और घाव को सहलाते हुए मलहम लगा रही थी। पत्थरों से पीछा कर मरनेवाली आज ममतामयी बन गई थी। मेरे बहते खून ने उसके आँसुओं की बांध को तोड़ दिया था। उसके आँसुओं के साथ उसकी दर्द की कहानी भी निकल आई। मेरा अथक प्रयास, पिटते रहने के धैर्य ने मानो उसे खुली क़िताब बना दिया था।

उसने बताया अपनी शादी से पहले वह एक सामर्थवान समृद्ध परिवार की लड़की थी। उसके पिता ने उसके अन्य भाई बहनों की तरह समय आने पर उसकी भी शादी एक खाते पीते समकक्ष परिवार मे कर दी। कालांतर में देश आज़ाद और विभाजन भी हुआ। विभाजन ने उसके मायके और ससुराल को भी पाकिस्तान (वर्तमान बंग्लादेश ) का नागरिक बना दिया।
और फिर दुर्भाग्य ने यहीं से घेरना शुरू किया। कट्टरपंथ ने उसके मायके को लील लिया।

इसी आग में उसके पति, एक मात्र बेटे की उसके सामने निर्मम हत्या कर दी गई। एक बेटी की सामुहिक ब्लातकार के बाद बीचों बीच उसके शरीर को फाड़ दिया। दो नन्ही जान सी बेटियों को लेकर वो शरणार्थी शिविर में आ गई। वहीं बीमारी से एक और बेटी चल बसी। फिर सबसे छोटी बुलबुली नामक बेटी के साथ वो पाकुड़ अपनी बहन के ससुराल आ गई, यहाँ भी बहन के ससुराल पक्ष ने उसे ज्यादा दिन नही रखा।

फिर घरों में घरेलू नोकरानी का काम कर पाकुड़ में ही भाड़े पर रहने लगी। पूरी दर्द की एक क़िताब बन चुकी और असहनीय दर्द से बेज़ार बुलबुली की माँ को शरणार्थी शिविर में मिलनेवाले खाने में रोज रोज आलू परवल की सब्जी से चीढ़ थी, शिविर में कभी कभी वो विद्रोह भी कर जाती थी। यही ख़बर पाकुड़ के बच्चों को भी पता चल गया था। बंगला में “आलू पोटोलेर तोरकारी बुलबुलीर माँ सोरकारी”

आम बच्चों और युवाओं के लिए तो एक कहावत और बुलबुली माँ की उग्र प्रतिक्रिया एक मनोरंजन मात्र था, लेकिन ये किसी को पता नहीं था, कि इतना कहना भर बुलबुली की माँ के सारे दर्द को कुरेद देता था। बुलबुली की माँ दशक पहले वहाँ चली गई, जहाँ अब उसे कोई दर्द न होगा और न दे पाएगा, लेकिन आज भी उनकी कहानी आज के राजनिज्ञों से सैकड़ों सवाल पूछती है।

अफ़सोस कि इन सवालों के जवाब हमारी राजनीति और व्यवस्था दे पातीं। 😥

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1 COMMENT

  1. एक मार्मिक कहानी
    आपकी पत्रकारिता और लेखनी को मेरा सलाम 🙏

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