डूबते पाकुड़ को देख कर हर बार सोचता हूँ, आख़िर क्यों होता है ऐसा? खुद से सवाल करता हूँ, क्या ऐसा होता आया है?
जवाब मिलता है, ऐसा हमेशा से नही है।
दो किनारों के अनुसाशन में जब तक गंगा नदी अनवरत बहती थी, और संथालपरगना की पाकुड़ इलाके से बह कर गंगा में मिलने वाली पहाड़ी बरसाती नदियों को जब तक छेड़ा नही गया था, तब तक गाँव के गाँव डूबते नही थे। बरसात में नदियाँ जब उफनतीं थीं तो शायद घण्टे दो घण्टों के लिए नदी किनारे बसे गाँवों में परेशानी होती थी, लेकिन इतनी ही देर में बरसाती नदियों का उफान बंद हो जाता था, और निर्बाध बहती नदियों से पानी गंगा के रास्ते निकल जाता था।
लेकिन बिना पूरे क्षेत्र का अध्ययन किये दोनों किनारों के अनुशासन के बीच बहती गंगा पर जब फरक्का बैरेज बना कर अंकुश लगा दिया गया, संथालपरगना की नदियों को भी विभिन्न तरह से प्रभावित किया गया, तब से पाकुड़ थोड़ा सा अतिवृष्टि होते ही डूबने लगा।
फरक्का बैरेज ने गंगा के निर्बाध बहाव को रोककर गंगा में गाद जमा होने में भी बड़ी भूमिका निभाई। नतीजन गंगा किनारे के शहरों में बाढ़ ने विभीषिका दिखानी शुरू कर दिया। स्वच्छ गंगा की बात तो होती है, लेकिन उसमें जमे गाद की सफाई पर कोई प्रयास नही होती।
अगर हम बरसाती पानी को निर्बाध बहने के रास्ते के साथ खिलवाड़ नही करते, फरक्का बैरेज, फरक्का एनटीपीसी और फरक्का ललमटिया रेलवे लाइन को बरसाती पानी के निर्बाध बहने का जगह देकर बनाते तो पाकुड़ और बड़हरवा सहित आसपास के इलाके लंबे समय के लिए जलमग्न नही होते, और गंगा में गाद भी इस कदर नही जमता साथ ही गंगा किनारे के शहरों में लंबे समय तक पानी नही ठहरता।