पिछले दो महीने से मैं थोड़ा बीमार चल रहा था। पहले हूँ तो मामूली सा गरीब आदमी, लेकिन बीमारी रहिशों वाले पाल रखा है।सुगर , प्रेशर और दिल की बीमारी से दोस्ताना बना रखा है । इसलिए इलाज के लिए कई बार कोलकाता जाना पड़ा।
खैर इन बातों को बताना उद्देश्य नहीं है । उद्देश्य बंगाल चुनाव के विषय में अपने अनुभव साझा करना है।
जाति से पत्रकार रहा हूँ , इसलिए बीमारी के बाद भी , चुनावी माहौल सूंघने निकलना मजबूरी बन जाती है।
कई जगह बंगाल में गया और चुनावी माहौल को टटोला ।
ऐसे मैं बंगाल से काफ़ी करीब से जुड़ा हूँ। मैं यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इस मामले में मैं शहर और किसी व्यक्ति या परिवार विशेष की बात का पीड़ितों की सुरक्षा को ध्यान में रखकर उल्लेख नहीं करूँगा।
पिछले 13 मई को बंगाल में भी कुछ जगहों पर मतदान था। मैं एक नामी शहर से लगे एक मुहल्ले में ठहरा हुआ था। अचानक रात में कुछ महिलाओं की सिसकने और फुसफुसाहट वाली आवाज से मेरी नींद खुल गई। मैं कमरे से बाहर निकला तो पता चला कि तकरीबन दो बजे रात में 30-40 व्यक्ति मुहल्ले के लोगों को धमका कर गया है , और एक परिवार विशेष के पुरुषों की हत्या की बात भी कह गया है। ये भी उस परिवार के सदस्यों को चेतावनी दी गई कि मतदान के दिन उस परिवार का कोई सदस्य बूथ पर मतदान करने पहुँचा तो घर तक वापस नहीं आ सकेगा। ये 12 – 13 मई की रात की बात मैं बता रहा हूँ।
मुझे वापस आना था, लेकिन इसके बाद मैं वहाँ ठहर गया।
मतदान के दिन मैंनें मतदान कर वापस आते उस मुहल्ले के लगभग लोगों से बात की। उनमें से दर्जनों लोगों ने कई चुनाव के बाद मतदान किया था , यहाँ तक कि जिस परिवार के यहाँ मैं रुका था , उन्होंने भी पिछले कई चुनाव के बाद मतदान किया था , लेकिन मतदान कर लौटते समय उनसे भी गुंडों ने बूथ से बहुत दूर ये जरूर पूछ लिया कि सही जगह मत दिया कि नहीं। हाँ जिस परिवार को रात में लोग मतदान न करने की धमकी दे गये थे , उस परिवार के लोग उसदिन घर के अंदर ही बंद रहे।
मैं वहाँ से वापस अपने शहर लौट आया , लेकिन सैकड़ों सवाल मेरे मन , मस्तिष्क और दिल को कुरेद रहा है।
चुनावी हिंसा के लिए कई राज्य बदनाम रहे हैं लेकिन जो मैं देख आया ये क्या था !
बूथों पर पुलिस , केंद्रीय बल सब थे , लेकिन 12 मई की रात उस महल्ले में तो धमकी देने वाले और गरीब मजदूरों का सिर्फ परिवार था, और कुछ था तो धमकियाँ , आतंक , आँसू और सिसकियाँ।
ये बंगाल में मैंनें पहली बार ही नहीं देखा , इससे पहले और , और पहले भी ऐसा ही देखा है। जब दूसरी सरकार थीं और जब तीसरी सरकार है।
मतलब बंगाल में चुनावी हिंसा की पुरानी परम्परा रही है , लेकिन बहुत ख़ामोश।
आपको अभी अभी सन्देशखाली याद है ? बहुत ख़ामोशी से सबकुछ होता रहा, और बहुत ख़ामोशी से सबकुछ सहा भी जाता रहा।
ये तो संयोग था , कि ED पर हमला हो गया और बहुत कुछ खुल गया।
चुनावी हिंसा बंगाल में सिर्फ चुनावी मौसम में नहीं, बल्कि चुनाव के बाद और अगले चुनाव के पहले तक होता ही रहता है ।
ग़ज़ब का पैटर्न है वहाँ । सिर्फ़ बंगाल में ही नहीं बल्कि पूरे देश में चुनाव राष्ट्रपति शासन में ही होना चाहिए । लेकिन क्या ये व्यवहारिक और संवेधानिक है ? मुझे पता नहीं। लेकिन ये पूरा मामला मुझे अवाक और निशब्द कर गया।
एक बात सकारात्मक ये दिखा कि कई चुनाव के बाद कुछ लोगों ने इसबार मतदान भी किया।
मैं जहाँ रुका था , वो गरीब मजदूरों का मुहल्ला था। मैंनें फोन पर पता किया कि उस भयभीत परिवार के पुरूष सदस्य जो दिहाड़ी मजदूर हैं , अभी तक घर में ही बंद हैं , काम पर भय से नहीं जा रहे। घर की महिलाएं सिसक रहीं हैं , बच्चे भूख से बिलख रहे हैं , उन्हें तो जीते जी ही मार दिया गया है। जिस पुरूष के सामने माँ बहन और पत्नी आँसुओं में डूबी हुई हों , और बच्चे भूख से बिलख रहे हों , तो क्या वो पुरुष स्वयं को जिंदा समझ रहा होगा ?
सवाल सिर्फ़ राजनीति या नेताओं से नहीं इस सभ्य समाज और पूरे देश से है।
बंगाल में चुनाव के बाद और चुनाव के पहले तक होती है बहुत ख़ामोश हिंसा। सन्देशखाली याद है आपको ? पीड़ा देने और सहने की ख़ामोशी की पराकाष्ठा है सन्देशखाली। मैं भी देख आया कई ख़ामोश चुनावी हिंसा।
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