हर पीड़ा , तमाम उपलब्धि , सरकारी काम , सूचनाएं ,व्यवसायियों की समस्या , समाज की आकांक्षाऐं सबको अपनी बात कहने के लिए पत्रकारिता की बैसाखी लेनी ही पड़ती है , फ़िर भी बेचारा पत्रकार…….
क्या नेताओं , अफसरों , व्यवसायियों और समर्थवान लोगों ने चाय की चुस्कियों के साथ जो कह दिया , उसे लिखना , अखबारों में जगह देना मात्र पत्रकारिता है ?
उनका क्या होगा जो अपनी दर्द की पीडाओं को अपने ही अंदर घोंट जाते हैं !
क्या उनकी पीड़ाओं को कुरेद कर बाहर निकलना और उसे समाधान तक पहुँचाना पत्रकारिता का धर्म नहीं ?
कभी उस आनन्द से भी पुलकित होने का अहसास कर के देखें , जब आपकी पत्रकारिता किसी की आँखों की आँसू को पोछ और चुरा जाए, तथा उन्ही आंखों में प्रसन्नता और सन्तोष की चमक दिख जाए।
हाँ हम पत्रकार करते हैं ऐसा । हम अपने दर्द को अपने ही अंदर दूर तलक दफ़न कर ढूंढते है , दूसरे की आँखों के सकूँ।
लेकिन जिसे देखो बस पत्रकार को कोसने में लगे है।
हम लोगों की दर्द को सामने लाते हैं, तो लोगों को दर्द पहुँचाने वाले धनपशु हमारी औकात नापने निकल लेते हैं। धमकियाँ ,आक्षेप और न जाने क्या क्या लिए निकल पड़ते हैं घर से , धमकियों और आक्षेप के ढेलों से घायल हमारा वजूद लहूलुहान हो फ़िर भी पीड़ितों के घावों को मलहम लगाते और सहलाते हैं।
और फिर सबों के साथ हम पर पत्थर उछालने वालों की भी अंतिम आस के रूप में हमी सहयोग में उभर कर सामने खड़े होते हैं।
क्यूँ होता है ऐसा , क्यूँ ये धनपशु पत्रकारों को अपनी जागीर समझते हैं। हम मानते हैं , हमारे बीच भी सड़ांध है , लेकिन सभी तो दुर्गंधित नही हैं, कुछ अपनी महक भी महकते हैं मित्र , उन्हें पहचानो वरना देश , राज्य और समाज सब पर इसका असर दिखेगा।
दुख और बढ़ जाता है, जब सरकारी अमलों से भी सौतेलापन मिलता है।
माननीय न्यायालय को बताना पड़ता है, उन उच्च शिक्षित सरकारी अमलों को कि पत्रकार भी अपनी मौलिक अधिकार के साथ जीने के अधिकारी हैं।
ये बात और है, कि आज के समय मे पत्रकारिता के क्षेत्र में अयोग्य लोगों ने अपनी उपस्थिति और डिजिटल तथाकथित पत्रकारिता ने इस पेशे को बदनाम जरूर किया है, लेकिन क्या सभी को एक ही तराजू पर तोलना तर्क और न्याय संगत होगा ? ये यक्ष प्रश्न है।