आज कल चुनाव ने ऐसा रंग-ढंग अपना लिया है , जो वर्षों पहले नहीं हुआ करता था। चुनाव एक लोकतांत्रिक त्यौहार के तौर पर हुआ करता था। सभी पार्टियों के लोग एक दूसरे से जब मिलते थे , तो लगता ही नहीं था, कि वे चुनावी मैदान में एक अपर के प्रतिद्वंद्वी हैं।
तीन दशकों की पत्रकारिता और उम्र के पाँच दशकों को गुजार चुकने के बाद आज एक पत्रकार के तौर पर चुनावी समीक्षा या समाचार लिखने में स्वयं को असहज पाता हूँ।
जमीनी हकीकत को लिख पाना असहज करता है।
अब तो पार्टियाँ भी अनेक हैं, और बागी तथा निर्दलीयों की तो बाढ़ सी है। सभी अपने ही समाज और जान पहचान वाले। सच लिखो तो अप्रिय बनने की स्थिति उत्पन्न होती है। जीतने वाले जीत कर राजधानी चले जायेंगे।
हम सच लिखने वाले यहीं पीसने के लिये रह जाएंगे।
जात पात-सम्प्रदाय पर चलने वाली आज की राजनीति खूनी संघर्ष की उपज मंडी बन गई है , जबकि पहले ऐसा नहीं था। हारने वाले जितने वाले को बधाई देता था। चुनाव के बाद समकुछ सामान्य हो जाता था।
पर आज ऐसा नहीं है।
समाज में चुनाव के बाद सभी एक दूसरे के सुख दुख में साथ रहते थे।
जो भी हो आज के दौर में सबसे पीड़ित चुनाव के बाद पत्रकारों को ही होना पड़ता है। आम जनता के सवालों का भी सामना पत्रकारों को ही करना पड़ता है , और असम्मानजनक परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ता है।
मतदाताओं के लिए वादे और रेवड़ियाँ सभी प्रत्याशी बाँटते हैं , लेकिन पत्रकार यहाँ भी फाँके में रह जाते हैं। जो ठेकेदार नहीं बन सके , वैसे पत्रकारों के पास सामान्य इलाज तक कराने की औकात नहीं होती , लेकिन सरकार और नेताओं को उनकी सुध तक लेने की ज़हमत नहीं होतीं।
पत्रकारों को भी चाहिए कि वे नेताओं की नहीं , आम जनता की बात लिखें कहें , लेकिन…..
चुनावी रंग ढंग में बदल चुका है पत्रकारिता की चुनौती
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