Sunday, November 24, 2024
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स्वतंत्रता दिवस पर कार्यक्रम ने ग्रामीण स्तर तक फैलाई जागरूकता, मॉर्टेलो टावर कहती बलिदानियों की मौन कहानी

पाकुड़ प्रशासन के दोनों सिविल और पुलिस के मुखिया उपायुक्त और एस पी ने स्वतंत्रता दिवस के पूर्व से ही स्वयं तमाम कार्यक्रमों की शुरुआत से ही नेतृत्व कर स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव को एक जनजागरण का रूप दे दिया। समरसता के चिंतन वाले पाकुड़ में दोनों प्रशासनिक प्रधानों ने अपनी सीधी सक्रियता से आमजन के दिलों में जगह बनाई, तो जनता ग्रामीण स्तर तक महोत्सव के रंग में रँगा है। ऐसे में संथाल वीरों की मौन गवाही और कहानी कहता मॉर्टेलो टावर पर कुछ न कहना बेमानी और आश्चर्यजनक होगा।

तकरीबन 156 वर्ष पहले संथाल विद्रोह की कहानी कहता पाकुड़ के सिद्धो-कान्हो पार्क में स्थित मार्टेलो टावर पर चर्चा के बिना के बिना पाकुड़ ही नही बल्कि पूरे संथालपरगना और संथाल जनजाति की वीरता, त्याग तथा स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत के साथ अन्याय प्रतीत होता है। 

मुझे इस समय ये लिखते हुए भी संकोच सा लगता है, कि पार्क के आँगन में ये टावर है, या फ़िर संथाल वीरों की खून से सींची जमीन की गोद मे पार्क है! सन्तोष है, कि पार्क का वीर शहीद सिद्धो-कान्हो के नाम पर रखा गया, और इसमें लगे एक-एक पौधे एक-एक वीर संथाल शहीदों की कहानी कहता नज़र आता है।

अभी समय नहीं था, कि इस पर लिखा जाय, लेकिन मुझे ये कहने में संकोच नहीं होता कि इस टावर को देखते ही कितने सवालों के थपेड़े मस्तिष्क पर पड़ता है, और फ़िर स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस तथा हूल दिवस पर वीर शहीदों की कहानियों से अखबारों के पेज इस क़दर भरा-पूरा होता है, कि ये सवाल उस भीड़ में कहीं खो सा जाता है।

लेकिन इससे पावन समय कुछ और इसपे लिखने के लिए नहीं हो सकता। जब भी इस टावर पर कुछ कहा गया, तो संथाल आंदोलन को विद्रोह कह दिया गया, ये विद्रोह मात्र नहीं था, ये देश को स्वतंत्रता आंदोलन के लिए उग्र होकर अपने अधिकारों के लिए लड़ने को प्रेरित करने की कहानी कहता है। इस आंदोलन ने उग्र विरोध को पँख और सोच दिया, लेकिन इस टावर ने कई सवाल भी खड़े किये, जो आज भी खामोशी से खड़ा हमें पूछता है।

सोचिए ब्रटिश सेना हमारे संथाल वीरों से किस क़दर भयभीत थे, कि एक ही रात में गगनचुम्बी टावर नुमा किला बना डाला! इसके अंदर से गोलियां चलती ब्रिटिश पुलिस-सेना और अपने पारम्परिक हथियारों के साथ सीना ताने खड़ी संथाल वीरों की सेना! कहते हैं दस हज़ार संथाल आंदोलनकर्ता अंग्रेजों की गोली से मारे गये थे। सोचिए गोलियों से छलनी होते अपने साथी को देखने के बाद भी तीर-धनुष लेकर संथाल वीरों ने कैसे उनका सामना किया होगा?

इन सवालों के साथ और कुछ सवाल मुझे हमेशा कुदेरता है, कि

  • क्या ब्रिटिशों ने इस टावर को बनाने के लिए मजदूर भी ब्रिटेन से मंगवाया था?
  • क्या इस ऐतिहासिक टावर के मूल स्वरूप के साथ छेड़छाड़ होनी चाहिए?
  • क्या पुरातत्व विभाग को इसके स्वरूप को मूल रूप में कायम रखने की जिम्मेदारी नही देनी चाहिए ?
  • क्या इस टावर के मूल स्वरूप पर लालफीताशाही और ठेकेदारी के काले कारनामों ने दाग नही लगा दी?

कई सवाल हैं, जो मुझे कुरेदता है। सबसे बड़ा सवाल कि किन परिस्थितियों में इस टावर के पीछे बिलकुल सटे हुए पत्थर के खदान दशकों पहले खुद गए? सोचिए कि गहरे खुदे पत्थर खदान में कितनी ब्लाष्टिंग हुईं होंगी, लेकिन वीर संथाल शहीदों की कहानी कहता ये टावर खड़ा रहा।

उस समय डॉ आर के नीरद, स्वर्गीय कुमार रवि दिगेश और स्वयं मेरी कलम नही सिसकती और अपनी आँसुओं से अखबारों के सीनों को नहीं चीरती तो शायद किसी दिन पत्थरों के बीच की ब्लाष्टिंग में ये कहानियां सुनता टावर भी पिस गया होता।

खैर अभी कुछ दिन पहले वीर संथाल शहीदों के कहानी पर पर्दा डालने की फिर एक प्रयास हुआ था, लेकिन आदिवासी छात्रों ने आंदोलन कर उसे सफ़ल नहीं होने दिया। अब कम से कम टावर के पीछे के खदानों में भरे पानी और उसके संरक्षण तथा सौंदर्यीकरण के साथ इसकी भब्यता बड़ाई जा सकती है। संथाल शहीदों के नाम और गाँव का सर्वे और एक शहीदों की स्मृति में शहीद स्मारक दिल्ली की तर्ज़ पर बनाया जाय, तो…… मुझे लगता है, ये सच्ची श्रद्धांजलि संथाल वीरों को होगी।

कुछ सवाल उठा कर मैं उन वीरों को 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस, पावन मास सावन, एवं मातृपक्ष दुर्गापूजा से पहले आसन्न पितृपक्ष में उन्हें अपनी शब्दांजलि देने का प्रयास कर रहा हूँ। आप भी इन सवालों पर विचार जरूर करें, निवेदन है।

Comment box में अपनी राय अवश्य दे....

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