बस एक दीनी कार्यक्रम, सिद्धो कान्हू की मूर्ति पर माल्यार्पण तथा परिसम्पत्तियों का वितरण मात्र है श्रद्धांजलि ???
आदिवासी समाज की सम्पूर्ण विकास ही होगा शहीद महापुरुष चारो भाईयों और वीरांगनाओं दोनों बहनों को सच्ची श्रद्धांजलि।
तकरीबन 157 वर्ष पहले संथाल विद्रोह की कहानी कहता पाकुड़ के सिद्धो-कान्हो पार्क में स्थित मार्टेलो टावर । इस टावर पर चर्चा के बिना के बिना पाकुड़ ही नही बल्कि पूरे संथालपरगना और संथाल जनजाति की वीरता, त्याग तथा स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत के साथ अन्याय प्रतीत होगा । मुझे इस समय ये लिखते हुए भी संकोच सा लगता है, कि पार्क के आँगन में ये टावर है, या फ़िर संथाल वीरों की खून से सींची जमीन की गोद मे पार्क है ! सन्तोष है, कि पार्क का वीर शहीद सिद्धो-कान्हो के नाम पर रखा गया। और इसमें लगे एक एक पौधे एक एक वीर संथाल शहीदों की कहानी कहता नज़र आता है।
मुझे ये कहने में संकोच नहीं होता कि इस टावर को देखते ही कितने सवालों के थपेड़े मस्तिष्क पर पड़ता है , और फ़िर स्वतंत्रता दिवस , गणतंत्र दिवस तथा हूल दिवस पर वीर शहीदों की कहानियों से अखबारों के पेज इस क़दर भरा-पूरा होता है, कि ये सवाल उस भीड़ में कहीं खो सा जाता है।
जब भी इस टावर पर कुछ कहा गया, तो संथाल आंदोलन को विद्रोह कह दिया गया । ये विद्रोह मात्र नहीं था , ये देश को स्वतंत्रता आंदोलन के लिए उग्र होकर अपने अधिकारों के लिए लड़ने को प्रेरित करने की कहानी कहता है। इस आंदोलन ने उग्र विरोध को पँख और सोच दिया , लेकिन इस टावर ने कई सवाल भी खड़े किये, जो आज भी खामोशी से खड़ा हमें पूछता है।
सोचिए ब्रटिश सेना हमारे संथाल वीरों से किस क़दर भयभीत थे। कि एक ही रात में गगनचुम्बी टावर नुमा किला बना डाला ! इसके अंदर से गोलियां चलती ब्रिटिश पुलिस-सेना और अपने पारम्परिक हथियारों के साथ सीना ताने खड़ी संथाल वीरों की सेना ! कहते हैं दस हज़ार संथाल आंदोलन कर्ता अंग्रेजों की गोली से मारे गये थे। सोचिए गोलियों से छलनी होते अपने साथी को देखने के बाद भी तीर-धनुष लेकर संथाल वीरों ने कैसे उनका सामना किया होगा ?
इन सवालों के साथ और कुछ सवाल मुझे हमेशा कुदेरता है , कि क्या ब्रिटिशों ने इस टावर को बनाने के लिए मजदूर भी ब्रिटेन से मंगवाया था ?
क्या इस ऐतिहासिक टावर के मूल स्वरूप के साथ छेड़छाड़ होनी चाहिए, ? क्या पुरातत्व विभाग को इसके स्वरूप को मूल रूप में कायम रखने की जिम्मेदारी नही देनी चाहिए ?
क्या इस टावर के मूल स्वरूप पर लालफीताशाही और ठेकेदारी के काले कारनामों ने दाग नही लगा दी ?
कई सवाल हैं, जो मुझे कुरेदता है
सबसे बड़ा सवाल कि किन परिस्थितियों में इस टावर के पीछे बिलकुल सटे हुए पत्थर के खदान दशकों पहले खुद गए ? सोचिए कि गहरे खुदे पत्थर खदान में कितनी ब्लाष्टिंग हुईं होंगी , लेकिन वीर संथाल शहीदों की कहानी कहता ये टावर खड़ा रहा।
उस समय डॉ आर के नीरद, कुमार रवि दिगेश और स्वयं मेरी कलम नही सिसकती और अपनी आँसुओं से अखबारों के सीनों को नहीं चीरती तो शायद किसी दिन पत्थरों के बीच की ब्लाष्टिंग में ये कहानियां सुनता टावर भी पिस गया होता।
खैर अभी कुछ दिन पहले वीर संथाल शहीदों के कहानी पर पर्दा डालने की फिर एक प्रयास हुआ था, लेकिन आदिवासी छात्रों ने आंदोलन कर उसे सफ़ल नहीं होने दिया।
अब कम से कम टावर के पीछे के खदानों में भरे पानी और उसके संरक्षण तथा सौंदर्यीकरण के साथ इसकी भब्यता बड़ाई जा सकती है। संथाल शहीदों के नाम और गाँव का सर्वे और एक शहीदों की स्मृति में शहीद स्मारक दिल्ली की तर्ज़ पर बनाया जाय, तो……
कुछ सवाल हैं, जिनपर विचार जरूरी है। शहीद महापुरुषों के अलावे शहीद हुए10 हजार सन्थाल वीरों का सर्वे कर , उनका नाम यहाँ खुदवाना चाहिए। उनके वंशजों को भी सरकारी नौकरी , शिक्षा , रोजगार और सुविधाएं देनी चाहिए।
और क्या एकदिनी कार्यक्रम काफ़ी है श्रद्धांजलि के लिए। सम्पूर्ण आदिवासी समाज का विकास सच्ची श्रद्धांजलि नहीं होगी ?
आप भी इन सवालों पर विचार जरूर करें,निवेदन है।
सिर्फ़ हूल दिवस ही नही ,हम और हमारी पीढ़ियाँ उन शहीदों का ताउम्र कर्ज़दार है और रहेगा।
उन्हें सहस्र नमन, असंख्य नमन🙏🙏🙏