Sunday, October 19, 2025
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तालाबों शहर से रूठ गया है भूगर्भीय जल, तालाबों की छाती पर इठलाती अट्टालिकाएं गंगाजल के इंतजार में है हजूर

पाकुड़ नगर के नाम के पीछे एक किंवदंती प्रचलित है, कि बंगला के “पुकुर” शब्द के अपभ्रंश से इस नाम की उतपत्ति हुई है। वस्तुतः बंग्ला के “पुकुर” का अर्थ होता है तालाब। तालाबों के इस शहर को हमारी पीढ़ी ने अहसासा है। कहीं भी खड़े खड़े हम विद्यालय जाते तकरीबन दस तालाबों के नाम गिना जाते थे। हर फलांग भर की दूरी पर तालाबों के नाम बदल जाते। कहते हैं नगर के दो किलोमीटर के रेडियश में सौ से ज्यादा तालाबों वाले पकौड़ को लोगों ने अपने बंगाल की संस्कृति से रचे बसे मिज़ाज के कारण पाकुड़ पुकारने लगे, जिसमें पुकुरों (तलाबों) की बहुतायत उपस्थिति ने भी अपना प्रभाव जरूर डाला होगा।

अब बंगाल की संस्कृति गलियों में सिमट गई और सड़कों पर मिलीजुली संस्कृति ने कब्जा जमा लिया और तालाबों पर अट्टालिकाएं इठलाने लगीं और जमीन माफियाओं की तिजोरियां तथा पेट फूलने लगे, उनके चेहरों पर अपनी ताक़त के अभिमान गुर्राने लगें।

तालाब भरने लगे कुछ सरकारी अमलें मिली भगत से सेठ बनते गए, अपनी अगली पीढ़ी के लिए अगाध जमीन जुटाने लगे। लेकिन जो बहुमूल्य चीज़ खोते गए वो था भूगर्भीय जल, जो नीचे और नीचे भागता गया।

आपको आश्चर्य होगा यहाँ कई महल्ले ऐसे हैं, जहाँ की अट्टालिकाएं समृद्धि का एलान करती हैं, तो उनके सबसे ऊपर पड़ी टँकीयाँ और बाथरूम की सूखी टोटियाँ दरिद्रता की दास्तान कहती नज़र आतीं हैं। इतराते बिल्डिंगों में पानी की बिंदी तक की नदारत रहना उनकी वेधब्यता की गवाही कहती है। तालाबों के शहर पाकुड़ में भूगर्भीय जल की कमी अदूरदर्शिता के परिणाम के सिवा क्या है!

कई बार पानी के लिए पानी-पानी हुए शहर के कुछ हिस्से के लिए आंदोलन के राह देखे हैं। लोगों ने आंदोलन का साथ भी दिया। कमोबेश पानी सप्लाई हुआ फिर बंद.. फिर मिला। मतलब पानी पाइपों में आया और धोखे भी खिलाते-पिलाते रहे।राज उच्च विद्यालय सड़क इलाके के लोगों के कूएँ सूख गए, सार्वजनिक बोरिंग, निजी बोरिंग सब के हलक सूख गए। मॉनसून आया, बारिश हुई, लेकिन सब भूगर्भीय जलस्रोतों के पेट पाताल ही छुए रहे।

कारण तालाबों का धीरे धीरे विलुप्ति। राज उच्च विद्यालय सड़क पर कंक्रीट के जंगलों के पीछे छुपे एक तालाब को फिर से भर दिया गया। (तालाब भरने के क्रम की तश्वीर, जो अब पूरी तरह भरा समतल मैदान सा नज़र आता है) तालाबों के शहर पाकुड़ में विलुप्त होते तालाबों पर किसी की जुबान नही खुलती। भूगर्भीय जल का मुख्य स्रोत ही भर दिए जाएं तो…….

संथालपरगना काश्तकारी अधिनियम 1949 की धारा 35 (1) को मुँह चिढ़ाते हुए दबंग सफेदपोशों ने उसी सड़क पर मौजा पाकुड़, खाता संख्या 477, दाग नम्बर 1230 पर स्थित पोखर को भर दिया गया।

बारिश तो हुई पर भरे मिटी-गिट्टी भरे तालाब में पानी नही भरा।
लेकिन आश्चर्य आसपास के सूखे कूएँ वालों ने चुप्पी ओढ़ ली।

ऐसे में आंदोलन और लोगों की दबी पड़ी विरोध क्या भूगर्भीय जलस्रोतों को आबाद कर सकता है? एक ज्वलंत सवाल है, पर जवाब कौन देगा हजूर?

आश्चर्य है, जिनपर तालाब भरने की चर्चा गर्म है, उनका घर भी इसी ड्राय जोन में पड़ता है !😢

उस इलाके के एक सज्जन ने आज मुझसे कहा, पानी की किल्लत के लिए घर बेच कर चला जाऊँगा। उनकी बातों से आहत हो कर स्वयं को रोक नही सका, ख़ुद से सवाल किया-

“क्या किस्मत ने इसलिए चुनवाये थे तिनके,
कि बन जाए नशेमन तो कोई आग लगा दे?”

नए डीसी साहब यहाँ यह चुनौती है, क्योंकि तालाब भरनेवाले लोग राजनीति की सेफ छाँव में हम जैसी आवाजों को मुँह चिढ़ाते हैं। कई चुनोतियाँ यहाँ मुँह बाए खड़ा है। गंगा के पानी को पाइपों में समेटने के इंतजार तो हम पाकुड़वासी एक दशक से ज़्यादा समय से कर रहे हैं, खैर अगर हमारे तालाब आबाद रहते तो गंगा की अविरल धारा की हम यूँ चंचलता नहीं छीनते। लेकिन कंक्रीट के जंगलों के बीच हमारा अंतिम सहारा अब पाइपों से आता गंगाजल ही है, लेकिन ये कब आएगा हजूर ए आली इसपर भी नजरें इनायत रहे।🙏

ओरो का दर्द देखा, तो मैं अपना दर्द भूल गया : अमन

हाँ यही मौन सम्वेदना अमन को सचमुच अमन बनाता है। एक दुर्घटना में बचपन में ही अपने पिता से बिछड़ जानेवाले इस लड़के का मौन दर्द उसे औरों से अलग बनाता है। एक सामान्य सा लड़का ( अमन कुमार ठाकुर )अमन आर्य बहुत ही असामान्य सा काम करता है। जहाँ आज लोग अपने पड़ोसी तक के दर्द और समस्याओं से अनभिज्ञ रहते हैं, वहीं अमन दूर बहुत दूर से किसी बेजुबान की कराह भी सुन लेता है। अगर कहीं कोई बेजुबान कराह रहा होता है, तो अमन के दिल में एक हूक सी उठती है, उसे ऐसा लगता है, जैसे कोई बहुत आर्त आवाज़ से मदद के लिए पुकार रहा हो, और अमन अकेले या अपने साथ पागल दीवानों की टीम के साथ वहाँ पहुँच जाता है।

मैं पागल, दीवाना या असामान्य शब्दों का प्रयोग अमन जैसे खूबसूरत नाम के लिए इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि एक सामान्य आदमी को अगर रास्ते पर चलते कोई जानवर या आवारा घायल बीमार स्ट्रीट डॉग दिख जाय तो मेरे जैसा सामान्य आदमी एक दूरी बनाते हुए नाक पर रुमाल रख निकल जाता है।सम्वेदना का एक भाव तो छोड़ दें , बल्कि कोई अपशब्द बुदबुदाते वहाँ से दूर निकल जाते हैं। लेकिन यहीं उस जानवर की मौन कराह और कष्ट की चीत्कार अमन के कानों में शोर मचा देता है, उसके कोमल हृदय पर मानो कोई छचार सी लगती हो, और फिर अमन उसके इलाज में अपने से स्वयं के पास उपलब्ध दवाइयों और ड्रेसिंग के समान के साथ लग जाता है। जिसके दर्द की तरफ़ हमारी संवेदनहीनता देखने तक से रोकती है, वहाँ अमन उस बेजुबान कुत्ते की इलाज के साथ साथ सुरक्षित स्थान की व्यवस्था करता है। जब तक मरीज ठीक न हो जाय लगातार उसका इलाज और सभी व्यवस्था करता है।

अब तो अमन के असामान्य व्यवहार ने बहुत सारे लोगों में कुछ सम्वेदना कुरेद कर भरी है, लेकिन घायल जानवरों की ख़बर अमन तक पहुँचाने की।

खैर अमन के इस संवेदनशीलता ने उन्हें हम जैसों से अलग एक पहचान दी है, लेकिन हम इसे भी अनदेखा करते हैं, लेकिन अमन कभी घायल जानवरों को अनदेखा नहीं करता, और यही अमन को हमसे अलग करता है, तथा असामान्य बनाता है।

जुबान वालों के आशीर्वाद और दुआओं में भी कभी कभी दिखावा और स्वार्थ होता है, लेकिन बेजुबानों और परित्यक्तों की निर्दोष और निस्वार्थ मौन दुआएं “अमन” जी भरकर कमा रहा है, अगर एक पन्ति में कहे तो एक इंसान अपनी इंसानियत को जी रहा है, जिसे पाकुड़ वाले “अमन” पुकारते हैं। एक बात और कि इन बेजुबानों को वोट देने का भी अधिकार नहीं, इसलिए “अमन” भी बिना वेबजह के आरोपों के झंझट से दूर निश्चिंत होकर अपने सेवा कार्य में व्यस्त है।

सोनार बंगला कहे जाने वाली भूमि, घोटालों का परिचायक बनी

संस्कृति की सममृद्वत्ता पर जब भी बात उठती है, बंगाल की छवि स्मृत हो जाती है। आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक या क्रांतिकारी वीरों की गाथा में न जाने कितने नाम अनायास ही नज़रों के सामने बंगाल से उकर आते हैं। अभी सोशल मीडिया पर एक बात वायरल है, कि अंडमान के सेलुलर जेल में कालापानी की सज़ा में बंद 600 कैदियों में अकेले बंगाल के 400 क्रांतिकारी वीर शामिल थे, लेकिन आज जब हम बंगाल की जेलों में झाँकते हैं तो वर्तमान सरकार के कई कर्ता धर्ता और उनके नजदीकी जेल की रोटी तोड़ते नज़र आते हैं। एक समय नैतिक मूल्यों को सर उठा रखने वाले आदर्शों के बंगाल को ये क्या हो गया कि अनैतिक घोटालों की एक लंबी कड़ी और सूचि शर्मसार करता दिखता है।

कभी सोनार बंगला कहा जाने वाले पश्चिम बंगाल को आख़िर किसकी नज़र लग गई, कि धान के इस कटोरे में स्वर्ण पिलीमा के बीच नगर निगम नियुक्ति घोटाला, शिक्षक भर्ती घोटाला, प्रधानमंत्री आवास घोटाला, वर्तमान में नारदा-शारदा घोटालों की कालिमा के धब्बों की कड़ी को आगे बढ़ाता बरबस दिखता है।

बाम पंथ के लाल झंडे नीचे पोषित 34 वर्षों के सरकार के बाद जब 2011 में ममता बनर्जी की सरकार आई, तो संघर्षो में पली बढ़ी ममता के ममत्व के नीचे माँ माटी और मानुष के नारों से उम्मीदों की एक आस जगी थी, लेकिन आज ममता सरकार के 25 महत्वपूर्ण लोग घोटालों के जाँच दायरे में हैं। सरकार के मंत्री और उनके सहयोगी जेल में या जेल के रास्ते पर नज़र आते हैं।

प्राथमिक शिक्षक भर्ती घोटाले को अगर सरसरी निगाहों से देखें तो 36 हजार शिक्षक कोलकाता उच्च न्यायालय के 12 मई 2023 के आदेश से निलंबित हैं। 36 हजार शिक्षकों की नौकरी पर तलवार लटक रही है। तकरीबन 250 करोड़ रुपये के शिक्षक बनने और बनाने के लिए लेनदेन किये गए। पश्चिम बंगाल वर्तमान सरकार के पूर्व मंत्री पार्थ चटर्जी फिलवक्त जेल में हैं, उनके सहयोगी और एक नजदीकी अर्पिता मुखर्जी के घर से 20 करोड़ जप्ती के बाद जेल गमन कर चुकी हैं तो कई लोग जेल या जेल के रास्ते हैं। पूर्व मंत्री की बेटी सहित कई लोग जो सरकार के लोगों से जुड़े या सत्तारूढ़ पार्टी के नेता या कार्यकर्ता हैं, शिक्षक नियुक्ति घोटाले की सूचि में हैं।

इसी घोटाले की जाँच के क्रम में ईडी को नगर निगम नियुक्ति घोटाले का सूत्र अयान सील की संलिप्तता मिली। उच्च न्यायालय कोलकाता ने सीबीआई को नगर निगम में हुई नियुक्ति घोटालों की जाँच ईडी के जाँच के आधार पर दिया। मतलब साफ़ है कि पश्चिम बंगाल में जहाँ भी हाथ जाँच एजेंसियाँ डालतीं है, पिटारे से एक और घोटाले की फुफकार सुनाई पड़ती है। नगर निगमों में लिपिकों और सफ़ाई कर्मियों की बहाली में ईडी के अनुसार तकरीबन 200 करोड़ के अवैध लेन देन का दावा है।

प्रधानमंत्री आवास योजना में भी घोटाले का पिटारा खुल चुका है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के वरीय अधिकारियों ने मालदा जिले के गाँवों का दौरा कर पाया कि प्रधानमंत्री आवास योजना में बड़े पैमाने पर अनियमितता है। समृद्ध, समर्थ और जिनके पास पहले से अपना मकान है, उन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ दिया गया है। सुविधा शुल्क के एवज में मकानों को दोमहल बनाने तथा पहले से उपलब्ध मकानों को और स्पेसस बनाने के लिए योजना का लाभ रेवड़ियों की तरह बाँटा गया है।

कहते हैं 2028 में हुए शिक्षक नियुक्ति घोटाले में एक हजार 2 व्यक्ति थे, जो न तो परीक्षा में शामिल हुए या फ़िर अपेक्षाकृत कम नम्बर पर उनकी नियुक्ति हो गई और उनसे ज्यादा नम्बर लाने वाले आसमान निहारते रह गए। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि नियुक्तियों के घोटालों में बंगाल ने कैसे रेकॉर्ड तोड़ घोटाले किये हैं।

घोटालों का शिक्षक नियुक्ति, नगर निगम नियुक्ति एवं प्रधानमंत्री आवास योजना घोटाले कोई नई बात बंगाल के लिए नहीं है, बल्कि कोयला, पशु तस्करी, शारदा चिटफंड, रोज बैली और नारदा स्टिंग जैसे घोटालों की कड़ी ने ममता बनर्जी सरकार की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किये हैं।

13 सौ करोड़ के कोयले की काली कमाई में तीन दर्जन से अधिक ऐसे नाम सीबीआई के खाते में दर्ज हुए हैं, जो न सिर्फ नामचीन हस्तियाँ रहीं हैं बल्कि ममता के भतीजे और तृणमूल के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बनर्जी और उनकी पत्नी रुजीरा बनर्जी भी सीबीआई और इडी के पूछताछ के दायरे से गुजरे।

पशु तस्करी मामले में नेता, अफसर, पुलिस, सुरक्षा बल आदि सभी ने मिलकर 20 हजार करोड़ डकार लिए। 40 हजार करोड़ रुपए की कमाई देनेवाले शारदा चिटफंड घोटाले में 25 हजार करोड़ के घोटाले की बात सामने आई। इसमें भी जेनेटरी व्यक्तियों की संलिप्तता सामने आईं।

रोज वैली 464 करोड़ के घोटाले की कहानी कह गया, तो नारदा स्टिंग ऑपरेशन और घोटाले ने ऑन एयर कइयों के शराफ़त के कपड़े उतारे, जो जनता के उद्धार के संकल्प के साथ जनता के द्वारा चुने गए थे।

आश्चर्य ये है कि जिस बंगाल की धरती रवींद्रनाथ टैगोर, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, खुदीराम बोस और नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे सुपुत्रों की जननी रही है, उसी बंगाल की धरती पर दाग लगनेवाले ऐसे कुपुत्रों को कैसे बर्दाश्त कर सकता है। 

वामपंथ के लाल झंडे में 34 वर्षों तक लिपटे बंगाल ने ममता के ममत्व की आँचल की छाँव में समृद्ध, शांत और सुसंस्कृत बंगाल की अपेक्षा की थी, लेकिन “जे जाय लोंका, सेय रावोण होय” (जो लंका जाता है, वही रावण बन जाता है) बंगाल की जनता ये सवाल स्वयं से ही पूछ रही है, ख़ुद को वहाँ की आम जनता ठगा ठगा सा महसूस कर रहे हैं।

भारत का भविष्य अभी और कितने ही “मणिपुर” की राह पर है अग्रसर

मणिपुर जल रहा है, खून बह रहा है, अस्मत तार तार हो रहा है। याद रखें ये सब इंसानी खून और अस्मत है। तार तार अस्मत करते और खून बहाते कौन हैं, ये भी तथाकथित इंसान ही हैं।

हमलावर कुकी समाज के म्यामांर से आये परिवर्तित कैथोलिक ईसाई हैं, जिन्हें यहाँ बसने में अंग्रेजी शासन काल से उत्तर पूर्व के चर्च सीएन ने बसने में मदद की। इनके साथ परिवर्तित मैतेई भी हैं, लेकिन इनके निशाने पर हिन्दू वैष्णव मैतेई हैं। हाँलाकि अब मार खाते खाते ये भी आक्रामक हो गए हैं, लेकिन हमलावरों का उद्देश्य क्या है? पूरे मणिपुर को चर्च के अधीन लाना, जैसे नागालैंड, मिजोरम और मेघालय की मूल संस्कृति को बिलुप्त कर ईसाई धर्म में परिवर्तित कर दिया गया है।

जब अंग्रेज आये वैष्णव सनातनी सीधे साधे बहुमूल्य सम्पदा वाले देश से अलग थलग सरल सम्पदा से समृद्ध लोगों को लूटना अंग्रेजों का उद्देश्य रहा था। आम लोगों के लिए परमिट और स्वयं खुलकर यहाँ रहना, शेष देश से इन्हें काटे रखना और अपना लूट और फुट डालो राज करो और अलगाववाद का बीजारोपण करने के एजेंडे को लागू रखना, जो सौ साल बाद भी जिंदा रहे की मंशा के साथ करना। धर्म बदलकर ईसाई बनाकर उन्हें एस टी का दर्जा और सरकारी सुविधाएं दी। परिवतिर्त समाज को कुकी और वैष्णव लोगों को मैती कहा जाने लगा। कुल मिलाकर वैष्णव समाज के लगातार विरोध करने के कारण इस क्षेत्र के विभाजन में असमर्थ रहे लेकिन भविष्य में विभाजन की बीज बो गए ब्रिटिश शासन। लेकिन धर्म परिवर्तन करा कर हिंदुओं की संख्या परिवतिर्त ईसाइयों कामयाब रहे। 90 प्रतिशत भूभाग पर मणिपुर में परिवर्तित लोगों का कब्जा हो गया और 10 प्रतिशत पर ही मैती यानी वैष्णव रह गए। अफ़ीम की खेती जैसे गलत कारोबार परिवर्तित लोगों से करा कर अंग्रेज मालामाल होते रहे।

आज़ादी के बाद भी मैती को राजा बोध चन्द्र सिंह के कहने के बावजूद 10 प्रतिशत भूभाग में रहने वाले मैती समाज को एस टी का दर्जा नहीं मिल पाया। स्वाभाविक रूप से उन्हें वो सुविधाएं नहीं मिली। असंतोष स्वाभाविक था और है। खैर महाराष्ट्र के नागपुर से नगालैंड की आदिवासी बाहुल्य अधिसूचित क्षेत्र में कालांतर में ईसाई मिशनरियों ने सेवा की आड़ में धर्म परिवर्तन का खेल चलता रहा। आदिवासी समाज अपने भोलेपन के कारण धर्मांतरण के शिकार होते रहे।अभी मणिपुर उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार मैती समाज को इस टी का दर्जा देने की बात कही। मणिपुर के मुख्यमंत्री बिरेन सिंह ने अवैध रूप से आये लोगों और अफ़ीम की खेती पर प्रशासनिक डंडों की बात कही। तस्करों का पूरा गैंग और उनसे लाभान्वित होने वाले राजनैतिक तथा मीडिया के लोगों को मानो साँप सूँघ गया और सपोलों ने मणिपुर को जलाना शुरू कर दिया।

ये जो भी आज हो रहा है अंग्रेजों की दूरदृष्टि वाली नीति और कुकृत्यों का परिणाम है। अंग्रेजों को पता था कि हिन्दू और मुसलमानों को लड़ा कर भारत के टुकड़े किये जा सकते हैं। उन्होनें पाकिस्तान बना कर कर भी दिया, लेकिन इतने पर वे सन्तुष्ट नहीं रहे, उन्हें भारत के टुकड़े टुकड़े करने हैं, और उन्होंने सौ दो सौ साल पहले से इसकी पृष्ठभूमि तैयार कर रखी है, इधर बंगलादेशी घुसपैठ और नागपुर टू नागालैंड के अधिसूचित कॉरिडोर को ईसाई लैंड बनाने पर साज़िश चल रही है। और रह रह कर सरकार के विरुद्ध आग लगाई जाती रही है।

अब मैंने कहा कि संथालपरगना भी इसी राह पर है

पिछले कुछ वर्षों से खुलेआम सुनने को मिला भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह। इसमें कोई नई बात नही है, कि भारत के टुकड़े करने के लिए कई अंतरराष्ट्रीय शक्तियां और साजिशें तकरीबन एक शताब्दी से ज्यादा समय से सक्रिय हैं। अब इसमें ये इंशा अल्लाह शब्द जो जुड़ा है ये एक नई साजिश है, इसे समझना ज्यादा जरूरी है। मुझे लगता है कि पहले भारत के टुकड़े करने की साजिश में इंशा अल्लाह को ही समझने की कोशिश करें।

भारत के टुकड़े करने के नारे के साथ जो इस मज़हबी नारे को जोड़ा गया वो सबसे पहले जे एन यू में हुआ और वहां नारे लगाने वालों में सिर्फ़ उमर खालिद ही नही बल्कि कन्हिया भी था। कन्हिया के साथ कितने सारे ही हिन्दू लड़के लड़कियां भी थीं। क्या किसी हिन्दू घर मे इंशा अल्लाह शब्द का प्रयोग सिखाया जाता है? नही और सिर्फ यही जवाब होगा, नहीं।
भारत के टुकड़े करने के लिए, सबसे ज्यादा जरूरी है, कि पहले यहां की ज़मीन और वातावरण में एक ऐसा ज़हर घोला जाय कि हर दिलों में दूरियां बढ़े और हर नज़र एक दूसरे को शक, वहम और सशंकित आशंका से देखे।

वर्षो से आतंकवाद और घुसपैठ को झेल रहे भारत में इस इंशा अल्लाह जैसे मज़हबी शब्द का भारत के टुकड़े करने जैसे नारों के साथ जोड़ कर आसानी से ऐसा ज़हर घोला जा सकता है और अंतरराष्ट्रीय साज़िश कर्ताओं ने बड़ी सफलता के साथ इसे जे एन यू के आंगन से इसे यहाँ परोस दिया। अब गाहे बगाहे ये दोनों नारे भारत के अलग अलग हिस्से में सुनने को मिल रहे हैं और हर राष्ट्र भक्त इसे एक मज़हबी नारा समझ कर एक मजहब विषेष और उसे मानने वालों को दूसरी नज़र से देख रहे हैं और स्वाभाविक रूप से स्वयं को शक की निगाह से घूरे जाने से एक प्रतिक्रियात्मक मानसिकता पैदा हो रही है। शाजिश करनेवाले भारत के टुकड़े करने के लिए समाज और दिलों टुकड़े करने में सफ़ल हो गए।

सवाल उठता है कि भारत के टुकड़े करने की क्या है अंतर्राष्ट्रीय शाजिश और ये कब से चल रहा है और इसमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किनका हाथ है। आंकड़ो, विज्ञापनों और पीतपत्रकारिता के इस दौर में किसी की नज़र इस और क्यों नही जाती ये समझ से परे है।

अंग्रेजों में कई सदी हम पर साशन किया, बड़े बेआबरू हो कर उन्हें इस सोने की चिड़ियाँ को आज़ाद कर जाना पड़ा, जाते जाते उन्होंने देश के टुकड़े कर दिए। लेकिन उन्होंने इतने पर ही सन्तोष नही रखा। इस देश के कालांतर में और भी टुकड़े होते रहें, इसका बीज वो बो गए और उस बीज को कई किनारों और तरीकों से उसे सींचना भी जारी रखा।

अंग्रेज़ो को पता था कि इस देश मे अब बहुत दिन रहा और राज नही किया जा सकता, इसलिए उन्होंने अपने शोषक मानसिकता के बाद भी, मिशनरियों की आड़ में सेवा कार्य शुरू किया। ये सेवा कार्य महाराष्ट्र के नागपुर से नागालैंड के एक विशेष कॉरिडोर में ही ज्यादा जोर से सिमटा रहा।ऐसा इसलिए कि इस इलाके में भारत की संस्कृति की रीढ़ आदिवासी समुदाय के लोग रहते है। भारतीय संस्कृति के मूल वाहक, भोले भाले, स्वभाव से ईमानदार और भौतिक विकास की अंधी दौड़ में सबसे पीछे रह गए इस आदिवासी समाज को धर्मातरण के द्वारा नागपुर से नागालैंड के इस कॉरिडोर को अलग कर एक अलग लेंड का पहचान दिलाना और फिर एक अलग ईसाई राष्ट्र बनवाना। अंग्रेजो ने अपनी फुट डालो राज करो की नीति को यहाँ से जाने के बाद भी कायम रखा।

सवाल उठता है कि इस अंग्रेजों की नीति के साथ इस इंशा अल्लाह का क्या नाता है! जब मज़हब के नाम पर भारत के टुकड़े हो चुके थे, इतिहास गवाह है कि तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के नेताओं और बंग्ला भाषी मुसलमानों के साथ पश्चिमी पाकिस्तान कैसा दोयम दर्जे का व्यवहार करता था। भारत की शेरनी इंदिरा गांधी ने पूर्वी पाकिस्तान को बंगलादेश के नाम से एक अलग राष्ट्र का अस्तित्व दिलवाया। ये टीस आज भी पाकिस्तान को है।

उधर तालिवान सहित पाकिस्तान के आतंकियों को फलने-फूलने में अमेरिका ने भरपूर सहयोग दिया ये दुनियां से छिपा नही है। इन आतंकी संगठनों ने बंगलादेश में भी अपनी गतिविधि शुरू की जो आज तक कायम है।

इधर भारत की वोटबैंक की राजनीति के कारण बंगलादेश से घुसपैठ शुरू हो गया, जो बदस्तूर जारी है।

अगर बंगलादेश से घुसपैठ के इलाके को देखा जाय तो असम, बंगाल, बिहार और झारखण्ड का इलाका प्रभावित है बंगलादेश के एक बुद्धिजीवी तत्कालीन कुलपति ढाका विस्वविद्यालय डॉ शाहीदुज्जमा ने एक सम्भावना को टटोलते हुए एक नीति बनाई कि भारत का एक बड़ा भूभाग जो बंगलादेश के सीमाई इलाके से लगा हुआ है, उसे घुसपैठ के द्वारा मुसलिम बहुल बना कर संस्कृति और भाषाई आधार पर काट कर बंगलादेश में मिलाने का प्रयास होना चाहिये और ये है भी कि सीमाई क्षेत्र में हमारी संस्कृति और भाषा बंगलादेश से मेल खाती है। हमारे यहाँ की वोटबैंक की राजनीति ने बंगलादेश के इस मंशा को बल दिया और घुसपैठ की इस सीमाई क्षेत्र में क्या स्थिति है, किसी से छिपी नही है।

इस नीति पर भारत को तोड़ने वाले पश्चिमी षडयंत्रकारियो की भी नज़र गई और उन्होंने भी घुसपैठ कराने वाले और भारत को अस्थिर कर तोड़ने की मंशा रखने वाले आतंकियों को और सींचना शुरू किया। क्योंकि इससे पश्चिमी षड्यंत्र नागपूर से नागालैंड तक की अलग एक और ईसाई बहुलता वाले राष्ट्र बनाने की मंशा भी पोषित होगी।

लेकिन पश्चिमी षड्यंत्र पर किसी की नज़र न जाये, इसके लिए उन्होंने इस्लामिक आतंकवाद और अलगाववादी सोच को अपने तरीके से सींचा और जहाँ जैसे जरूरी समझा उसे इस्तमाल किया।

और हमारे यहाँ के तथाकथित बुद्धिजीवी, प्रगतिवादी सोच की ढोंग रचने वाले लालची लोग और स्वयंसेवी संस्थाएं एक आतंकी के लिए नारे लगाते और लगवाते है भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह।

ये नारे लगाने वाले लोग ईश्वरीय सत्ता को नही मानते तो ख़ुद को बामपंथी कहने वालों देश को ये तो बताओ कि इस टुकड़े करनेवाली अपनी मंशा में अल्लाह को लाने का हक किसने तुम्हे दिया और तुम अल्लाह का नाम लेकर यहाँ विद्वेष किस मंशा और किसके इशारे पर कर रहे हो?

हमे सोचना होगा कि भारत के टुकड़े करने की बात सिर्फ़ पाकिस्तान या वहाँ के आतंकी नही सोचते, बल्कि पाश्चात्य सभ्यता और देश भारत के टुकड़े करने का बीज बहुत पहले बो गए हैं और उसे इस्लाम के नाम पर कुछ भटके हुए तथाकथित इस्लामिक आतंकी नेताओं के कंधों पर बंदूक रख कर चला रहे हैं।

इन सारी बातों और अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों को अगर समझने का प्रयास किया जाय, तो देश के अलगाव, विघटनकारी एवं देश के अन्दर गृहयुद्ध की परिस्थियों को जन्मदेनेवाले तत्वों के विषय मे समझा जा सकता है।

पाकुड़ और सन्थाल परगना का क्षेत्र ऐसे ही षड्यंत्री ताकतों का केंद्र बना हुआ है। लेकिन ये घुसपैठ और संथालपरगना में जहाँ आदिवासी संस्कृति के साथ साथ, ईसाई मिशनरियों की मजबूत पकड़ है, वहाँ बंगलादेशी घुसपैठियों ने शादी की आड़ में जमीन हथियाने और धर्मांतरण का रास्ता अख्तियार कर ईसाई समाज से भी पंगा ले लिया है, जिसकी आशा या परिकल्पना किसी को नहीं थी। इसके साथ बहुत कुछ जुड़ा हुआ है, चाहे वह औद्योगिक विस्फोटक, अमोनियम नाइट्रेट, कोयला, पत्थर आदि की कालाबाजारी हो या फिर पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया की सक्रियता और एन आई ए जैसे केंद्रीय एजेंसियों की पाकुड़, सहेबगंज सहित बंगाल, बिहार असम आदि राज्यों में पैनी नज़र।

लेकिन सबसे विडम्बना की बात है कि हमारी राजनीति वोट बैंक की राजनीति में अपने अंग रहे लोगों की सुविधाएं अन्य देशों के नागरिकों को तो देने के लिए तैयार हैं, लेकिन इसकी कीमत हमें अपने ही बीच शंका और आशंका को ढोते हुए भुगतना पड़ रहा है। ये कब समझा जाएगा, कब हम समझ पाएंगे? वह दिन दूर नही जब संथालपरगना, पश्चिम बंगाल, बिहार और असम के कुछ जिले मणिपुर की तरह जल उठे। पूरे देश में पश्चिमी डिप्लोमेटिक आतंकवाद, इस्लामिक आतंक की आड़ में भारत के टुकड़े टुकड़े करने पर तुले हैं और हम हिन्दू मुसलमान खेल रहे हैं।

गृह युद्ध की रणनीति को समझने के लिए एक और बात पर ध्यान देने की जरुरत है, क्या आपने इस बात पर गौर किया है, कि राष्ट्रीय उच्च पथों पर जगह जगह चौराहों पर अव्यस्थित घनी आवादी अवैध निर्माण और अतिक्रमण कर बनाये गये हैं, हालाँकि कुछ जगहों पर सड़क चौड़ीकरण में ये हटाए भी गए हैं। रेलमार्गों पर नज़र डालें तो रेललाइनों के किनारे संकरी गलियों वाली ऐसी ही आवादी पूरे भारत मे नज़र आती है। हवाई अड्डों के आसपास भी तंग झोपडपट्टियाँ दिख जाती रहीं हैं।

ऐसा क्यों? ताकि गृहयुद्ध के दौरान सेना और फोर्स के आवागमन को बाधित किया जा सके। शायद इन्हीं बातों को ध्यान में रख कर केंद्र सरकार ने न सिर्फ़ पर्याप्त हवाई युद्धक समान ख़रीदे और खरीद रहे हैं, बल्कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बने और बंद पड़े हवाई अड्डों को पुनर्जीवित किया, नए भी बनाये, जिससे फोर्स और आवश्यक सामानों को निर्बाध लाना ले जाना सुलभ हो।

यह देश एक रंगीन गुलदस्ता है, किसी भी रंग की अनुपस्थिति गुलदस्ते को फीका करेगा, ये कभी हम, हमारी राजनीति, हमारी पीत पत्रकारिता समझ पाएंगे ऐसा विस्वास है। इंशा अल्लाह, हे राम, प्रभु यीशु अब तो तुम्ही जानो। ऐसे हजारों हजार वर्षों से भारत है और रहेगा।

कृपासिंधु तिवारी बच्चन

            

एक व्यंग का प्रयास जो हक़ीक़त है…

फरवरी-मार्च और अप्रैल का महीना सरकार के विभाग और जिम्मेदारियां इतनी बेरहम हो जाती हैं कि हमें जीने नही देती।

इन्ही दिनों बच्चों की परीक्षाएं, टेक्स भरने के लिए नोटिशें, नगरपालिका, बिजली विभाग, बैंक जैसे सभी बेरहमों के प्रेम पत्र और न जाने क्या क्या !

हे भगवान फिर बच्चों का रिएडमिशन, किताबें ड्रेस, सच में जीने पर भी सोचना पड़ जाता है। लेकिन सरकारें इन विषयों पर क्यों नही सोचती ?

मैं ये नही कहता कि सब माफ़ कर दो लेकिन सोचो यार, किश्तों में मारो, ये हक़ है आपको कि आप चाहे जो करें
मगर क़त्ल भी करें तो जरा प्यार से….

खाश कर हम जैसे लोगों के लिए बड़ी समस्या है सरकार। क्योंकि ठहरे मुफ़सील पत्रकार और स्वाभिमानी बनने के ढोंग में विज्ञापन भी नही उठा पाते, अख़बार और टी. वी. वालों के कोर्ट पेंट, ए सी, बंगला, ठाट बाट सब हमारे खून पर ही चलते हैं। किसी तरह पमरिया, बन्दी चारण के तर्ज़ पर अपना जीवन बसर करते हैं, ताकि हमारे मालिकों को खून मिल सके।
और हाँ मेरा पारिवारिक बैकग्राउंड भी ऐसा है, कि अगर कहीं नॉकरी…. पार्ट या फूल टाइम जॉब भी मांगने जाते हैं, तो कोई विश्वास ही नही करता… हंस कर ठहाकों के साथ प्रेम से चाय वाय पिलाते हुए ये कह कर टाल जाते हैं कि आपको और नोकरी मज़ाक मत कीजिये साहब, देश विदेश ……………..
(आप क्या और किस वर्तमान परिस्थितियों में हैं से किसी का परिचय नही होता, आपके पिता क्या थे, आपके भाई बन्धु, सम्बंधियों पर ही लोग आपका मूल्यांकन करते हैं। ये कोई नहीं समझता कि कोई कौन क्या है, क्या था से सिर्फ़ और सिर्फ़ आपकी एक पहचान भर बनती है, आपके आर्थिक मूल्यांकन से इसका कोई सम्बंध नही होता।)

खैर टाल जाते हैं, अब उनको कैसे समझाये कि हमको तो यही हमी होने ने मारा है।
कभी बेबशी ने मारा…
कभी बेकशी ने मारा…
किस किस का नाम लूँ
मुझे हर किसी में मारा।।

बस सरकार और हालात से विनम्र प्रार्थना है कि हम जैसे बीच में लटके न अमीर न गरीब बन सके लोगों को जरा किश्तों में मारें तो बड़ी कृपा होगी।

मेरे एक पुलिस वाले मित्र की कुछ पन्तियाँ ऐसे में मुझे याद आ जाती है…

“आसमान की ऊँचाइयों की क्या बात करें हम,
पेट की गहराइयों में खो गया है आदमी”

हम जैसे आदमियों के बारे में सरकार कुछ आदमियत दिखाते हुए ईएमआई तय कर दे हमारी समस्याओं का।
क्योंकि थोक में एकमुश्त समस्याएं रस्सी और ज़हर की पुड़िया ढूँढने को बेबस करती है, लेकिन मंगहाई की डायन ऐसी बेदर्दी दिखाती है कि…..
खैर क्या किश्तों में हम नही दुहे या मारे जा सकते ?
नहीं बस यूँ बस पूछ रहा था , ऐसे ज़हर और रस्सी का पैसा बचाकर आज मैंनें एक किश्त चुका दी है जिम्मेदारी का

लेखन की मजबूत बुनियाद और प्रेरणा से एक परिचय, जो लाज़मी है

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पत्रकारिता के रास्ते मेरी कलम की सफ़र की कहानी मैंनें कल के आलेख में बताया था। हँलांकि प्रकाशन के अभाव में कलम की सफ़र की शुरुआत में ही सर क़लम हो गया, और सरोकार की लेखन की पहली किस्त ही गंगा की गोद में जल समाधी में चला गया, लेकिन मजबूत बुनियाद ने मुझे हताशा में नहीं जाने दिया। आइए उस बुनियाद से भी आपको परिचित कराएं—

किसी भी सकारात्मक सफर की एक मजबूत बुनियाद होती है, जहाँ से प्रेरणा की रक्तसिंचन होती है, वही से लेखन या किसी निर्माण के कल्पनात्मक अदृश्य शरीर की धमनियों में सृजन का रक्त बहकर जीवन का संचार करता है। इसी से परिचय सफ़र शुरुआत की एक भूमिका होती है, और ये भी भूमिका एक आधार या यूँ कहें कि जमीन पर टिकी होती है।
मेरी कलम की चलने की शुरुआत की जमीन मेरे पिता स्वर्गीय प्रोफेसर श्रीकांत तिवारी जी रहे।

उन्होंने कभी ये नही कल्पना की थी, कि उनके पुत्र की कलम पत्रकारिता के रास्ते चलेगी।
हिन्दी के प्रोफेसर, संस्कृत के गोल्डमेडलिष्ट, अंग्रेजी व्याकरण के ज्ञाता और गणित के अच्छे जानकार मेरे पिता ने कभी ये नहीं सोचा कि मैं पत्रकारिता की राह चलूँगा।

एक पिता और तीन-तीन लिटलेचर के ज्ञाता मेरे पिता की गणित इस मामले में सटीक नही निकल सकी थी कि मैं इस ओर चल पड़ूँगा।

उन्होनें मुझे कलम के सफ़र में बस एक अच्छी लेखनी और शायद किसी सरकारी नॉकरी में भेज पाने की मंशा से ही उतारा था।

खैर उनकी अपेक्षा पर मैं सही नहीं उतर पाया, और कंक्रीट के उस रास्ते चल पड़ा जो आज चुभती हुई गिट्टियों की पथरीली राह बन गई है। कैसे और क्यूँ इसपर अगले आलेख में।

अभी बस इतना कि ले कलम का सफ़र शुरू हुआ कैसे और कब ?

बात 1980 के दशक की है। उस समय मैं अपनी मेट्रिक यानी 10 वीं की परीक्षा से लगभग चार साल दूर था। हमारे समय मे लेख लिखने की परंपरा थी। परीक्षाओं में लेख आलेख और संक्षेपण जैसे प्रश्न आते थे।

मैं नटखट और पढ़ाई के प्रति उदासीन किशोरावस्था को जी रहा था। फलस्वरूप पिता की छड़ियों का अक्सर कोपभाजन बनता था।

ऐसी पिता-पुत्र की विरोधावस्था वातावरण के बीच , पिता ने मुझे स्वयं अपने ऊपर एक लेख मुझे अपनी दृष्टिकोण से लिखने को कहा।

शर्त ये था, दृष्टिकोण मेरा स्वयं का हो, एक बड़े पृष्ठ में उसी दिन हिन्दी में वो लिख उनके सामने प्रस्तुत करूँ।
मैं एक ऐसे पिता पर लेख लिखने जा रहा था, जो करीब रोज मेरी मरम्मत कर अपने कोप सिंचन से मुझे गम्भीर अध्ययन के रास्ते पर लाना चाहते थे।

मेरी चंचल मानसिकता, बहिर्गमन बुद्धि, बोद्धिक अकर्मण्यता तथा पढ़ाई के प्रति अरुचि मुझे एक असमंजस में डाले हुए था, कि मैं अपनी दृष्टिकोण से अगर उनपर आलेख लिखूँ तो कैसे।

मुझे याद है, मैं उसदिन काफ़ी विचलित था, उनपर लिखते ही शब्दों की धारा उनकी मेरी होनेवाली आएदिन की मरम्मत की जाल में फँस बिखर जाती।

मैंनें स्वयं को लिखने से पहले सम्भाला। स्वयं को हासिये पड़ खड़ा रखा, फिर एक साक्षी बन अपने पिता के सिर्फ़ मेरे नहीं बल्कि औरों के गुण-अवगुणों का आंकलन करते हुए, उनके व्यवहार को टटोला।

पिता के मेरे और अन्य सुलझे-अनसुलझे लोगों के प्रति व्यवहार का मूल्यांकन कर मैंनें अपने पिता पर आलेख लिखा।
हँलांकि मेरे पिता क्या थे, कैसे थे, इसका मूल्यांकन की औकात मेरी नहीं। आज भी नहीं है, उस समय तो मैं सोच भी नहीं सकता था।

खैर जब मैं हासिये पर खड़ा हो, एक साक्षी भाव से पिता पर आलेख ले उनके सामने खड़ा था, तो मैं हर पंक्ति पर फिसली उनकी नजरों के साथ उनके चेहरे पर उकरती लकीरों की भाव को भी पढ़ने का असफ़ल प्रयास कर रहा था।

पूरे पन्ने को वो पढ़ गए, और कई बार पढ़ते रहे, यहाँ भी मन में एक अपराध बोध के साथ मैं ख़ामोश साक्षी बना रहा।
अचानक वे उठे और मुझे पूछ बैठे, मैं तुम्हें क्रूर नहीं लगता ?

मैंनें सिर्फ़ नही कहा, और कहा मैंनें तराशे गए आपके छात्रों को देख आपको हाथ में छेनी हथौड़ा लिए सिर्फ़ एक कारीगर समझा। मैं पन्नों में तो पीड़ित भर स्वयं को समझा था, लेकिन जब हासिये पर खड़ा हो देखा, तो आप कारीगर दिखे, और मैं बिन तराशा गया बेडौल पत्थर सा दिखा।

यहीं से कलम ने पिता के आशीर्वाद से कलम के सफ़र के रास्ते डाल दिया मुझे।

उन्होनें कहा इसी तरह हासिये पर खड़े होकर साक्षी भाव से समाज और पीड़ित ,शोषित की आवाज़ बनना, स्वयं पीड़ित मत दिखना न ही दिखाना। पीड़ा उनकी कहना जिनके पास अभिव्यक्ति के साधन, शब्द और भाषा नहीं।

यही साहित्य है, जो सबके हित की बात करता है।

लिखना और लिख कर ही कहना, ये वातावरण में एक शोर बन घुलता और विलीन नहीं होता। शब्द लिखे गए ब्रह्म होते हैं, जो निर्माण करता है, एक जीवंत साक्ष्य, जिसे झुठलाना असम्भव है।
मेरे पिता के कथन ही जीवन बन उतर गए दिल मे, और दिल जो कहता है, मेरी कलम कहती जा रही है, अपने सफ़र में।
मेरी कलम यहीं से अपने सफ़र पर है , बिना किसी हताशा के।

पहला सफर, मेरी कलम का.. पत्रकारिता के रास्तों पर

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समय बड़ा बेसमय हो गया था, दशक 1980 के अंतिम पड़ाव पर था। सन 89।

मैं अपनी पढ़ाई के लिए पाकुड़(अब झारखंड, तत्कालीन बिहार के अंतिम छोर के कस्बाई अनुमंडल) जिला से भागलपुर में था।

भागलपुर एक जाना पहचाना , मेरे ननिहाल का निकटतम होम टाउन था। 1986 के अंतिम दिनों में मैं पढ़ाई के लिए वहाँ था। 1989 में शहर दंगे की चपेट में आ गया।

मैं अपने शैशवावस्था से पाकुड़ में ही किशोरावस्था से होते हुए युवा हुआ। मुझे उस समय ये पता नहीं था, कि जाति और धर्म व्यक्ति को बाँटता है , क्योंकि पाकुड़ में ये माहौल ही नहीं था। हमें पता ही नहीं चलता था कि समाज में ऐसा कुछ होता है , लेकिन आज लोगों को ये अविश्वनीय लगेगा। हँलांकि पाकुड़ भी अब बाहरी सोच की हवाओं से मानसिकता के प्रदूषण को झेलने लगा है, लेकिन आज भी यहाँ की हवाओं में खूनी ज़हर जगह नहीं बना पाया है।

मेरी संगति और दोस्ती भागलपुर में भी इन बंधनों से दूर ही रहा। 

अचानक एक दिन भागलपुर में दंगा हुआ , पहली बार राजनीति और उसके बदनाम पहलुओं के साथ सम्प्रदाय शब्द से रूबरू हुआ।

बदमिज़ाज राजनीति के पहलुओं से मेरा साक्षात्कार यहाँ पहली बार हुआ। विद्रोह और पुलिस से लेकर जनता तक की बिद्रोही स्वभाव के अस्वाभाविक पहलु से मैं परिचित हुआ। बड़े बड़े पदासीन नेताओं को पिट जाते तक  देखा।

दुखद ये कि निरीह और निर्दोषों को अकाल मरते मिटते देखा।

बचाव और सहयोग के हाथ को बढ़ते और उन हाथों को भी कटते देखा । क्या देखा और क्या न देखा , इस सवाल से भी लोगों को बचते देखा।

इन सबके बीच मैंनें अपने आँसू को सूखते और दिल को रोते देखा।

यहाँ से ही सरोकार के लिए मैंनें अपनी कलम को चलते देखा। फिर उस कलम की सफ़र को प्रकाशन के अभाव में दम घुटकर सिसकते देखा।

इन सबके बीच मैं पीड़ितों से मिलता रहा। दंगे की खूनी आग तो दब चुकी थी , लेकिन दबी राख़ में सिसकते दर्द भरी कहानियाँ, उन कहानियों में कहीं असह्य दर्द , दर्द में छुपी हुई घृणा और द्वेष , कहीं बदले की मानसिकता तो कहीं चलो झुलसी जिंदगी को एक नई राह पर ले चलूँ का भाव , न जाने और कितना कुछ दिखता गया , और मैं लिखता गया। 

उस समय कोई इंटरनेट या डिजिटल प्लेटफार्म नहीं था। कागज और कलम पर लिखता रहा। जो दिख उन्हीं दर्दों को शब्दों में उकेरता गया। मैं किसी का नाम नहीं लूंगा , लेकिन सत्यात्मक तथ्यों को कहीं प्रकाशन का मंच नहीं मिला। पढ़ने को बहुत कुछ मिलता , लेकिन जमीन की बातें कम और मसालों की सुगंध ज़्यादा था।

  ” यूँ ही तन्हाई में हम दिल को सज़ा लेते हैं,

    नाम लिखते हैं तेरा ,लिखकर मिटा देते हैं,

   जब भी नाक़ाम मुहब्बत का कोई ज़िक्र करे,

   लोग हँसते हैं, हँसकर मेरा नाम बता देते हैं “

कुछ इसी तरह के दर्द को लिए हम हक़ीक़त की कहानी लिखते गए, और जमा करते गए।

हाँ दंगा पीड़ितों में मैं दर्द की कहानियों को टटोलता जहाँ गया , हर जगह मुझे सम्प्रदाय से इतर एक पीड़ित ही मिला। हर पीड़ित गरीब , रोज कमाने खानेवाले और दिन निकलते ही अपनी मेहनत से समाज , राज्य और देश को कुछ न कुछ देने वाले दीन ही दिखे। 

आश्चर्य था , कोई सामर्थवान हिन्दू या मुसलमान मुझे दंगा पीड़ित नहीं दिखा। किसी कौम का कोई बड़ा या छुटभैया नेता तक पीड़ित नहीं दिखा, जिन्होंने ऐसे नरसंहार की पृष्ठभूमि तैय्यार की।

धर्म के ठेकेदारों ने ऐसा अधार्मिक पृष्टभूमि बनाई कि मानवता कराह उठी थी। जिधर देखता सिर्फ़ एक दर्द की कराह थी। अफवाहों की ज़हरीली हवा कहीं से उठती और मनुष्य को हैवान बनाती गुज़र जाती।

मेरी थैली में सैकड़ों दर्द की कहानी कागज़ों पर उकरी पड़ी थी। 

मुझे मेरे पिता ने सकारात्मक पहलुओं पर लिखने की शिक्षा दी थी , मैं उन दर्दो की कराह में भी कोई सकारात्मक पहलू ढूँढता, लेकिन पीड़ितों की करुण चीत्कार मुझे दहला देता , और कहीं मैं स्वयं को बेबस पाता। मेरी कलम भटक पड़ती। मेरी उम्र की अपरिपक्वता मुझे अपनी चपेट में ले लेती। कभी कोई तो कभी और कोई मुझे दोषी लगता।

कुछ दिनों में दर्द के उन पहलुओं ने , जो न तो हिन्दू था , न मुसलमान , जो सिर्फ़ और सिर्फ़ मानवता की कराह भर थी , ने मुझे मानसिक रूप से विचलित कर दिया।

राजनीति की उठापटक और लाशों के सीने पर कूटनीति की नूराकुश्ती ने मुझे विचलित कर रखा था।

गंगा किनारे घण्टो बैठ कर सोचा करता कि कुर्सी के लिए इतनी गोद सूनी कर , घर के चिराग़ तथा कितने ही बच्चों के सर से ममता और पालन की छाँव छीन ये कैसे सामान्य बने रह सकते हैं ?

एक दिन मैं भी इतना निराश हो चला कि गंगा किनारे गंगा माँ से कहा कि जितनी लाशों को बिना उसके मज़हब को पूछे तूने उन्हें अपनी गोद में जगह दी माँ , उन तक उनके अपनों की दर्द और आँसुओं का ये संदेश भी पहुँचा देना।

मैंनें अपने लिखे सभी दर्दो की कहानियों को पन्ने दर पन्ने गंगा की लहराती आँचल में डाल दिया।

कहानियाँ तो गंगा की आँचल में चलीं गईं, लेकिन मेरी कलम आँसुओं की राह भी चल चुकी थी अपने सफ़र में।

अवैध खनन, भंडारण और परिवहन पर जिला प्रशासन सख़्त, चार क्रशरों का लाइसेंस रद्द, एफआईआर दर्ज

जिला खनन टास्क फोर्स टीम द्वारा 4 ट्रैक्टर एवं 1 जेसीबी को किया गया जप्त

4 क्रशर संचालकों का डीलर लाइसेंस को तत्काल प्रभाव से किया गया सस्पेंड

पाकुड़ । उपायुक्त वरूण रंजन के निदेशानुसार खनन टास्क फोर्स टीम द्वारा दिनांक 14.03.2023 को पाकुड़ जिले के निम्नांकित स्थलों पर अवैध परिवहन, अवैध भंडारण की औचक निरीक्षण की गई।

औचक निरीक्षण के दौरान मालपहाडी (ओ०पी०) थानान्तर्गत रामनगर मोड मालपहाड़ी रोड में मौजा- अराजी खपडाजोला में श्री एस०के० दत्ता के स्टोन क्रशर के बाहर एवं विपरीत दिशा एवं अवैध भण्डारण स्थल का भौतिक निरीक्षण एवं जांच किया गया। स्थल पर जेसीबी स०- JH16B-7894 द्वारा इस अवैध स्थल पर अवैध पत्थर / स्टोन डस्ट को बेचने हेतु जमा करते पकड़ा गया। जिसे जप्त करते हुए अवैध कार्य में संलिप्त व्यक्तियों, जप्त जेसीबी के मालिक / चालक तथा भण्डारण स्थल के भूमि के रैयतों के विरूद्ध मालपहाड़ी (ओ०पी०) में प्राथमिकी दर्ज कराया गया।

इसके अतिरिक्त पाकुड़ (मु०) थानान्तर्गत मौजा- कालीदासपुर में स्थित प्रवीर साहा के “साहा धर्मकॉटा” पर निम्नांकित चार वाहनों/ ट्रेक्टरों के ट्रेलर पर पत्थर चिप्स से लदे बिना परिवहन चालान के पकड़ा गया। सभी वाहनों के चालक ट्रैक्टर छोड़कर फरार हो गये।

साहा धर्मकाटा में पूछताछ के क्रम में धर्मकाटा के मुंशी चंदन कुमार भगत के पास से एक कागज में दिनांक 14.03.2023 को खनिज लदे वजन कराये गये कुल चालीस वाहनों की जानकारी मिली। जिसमें प्रति ट्रिप वजन कराने का 50 रूपये एवं खनिज विक्रेताओं / क्रशर मालिकों का नाम संक्षिप्त कोड में जैसे सलीम शेख के लिए SL. Abdul Hamid Sk के लिए H जाकिर हुसैन के लिए J.K तथा DNS का नाम अंकित है। साहा धर्मकाटा में मौजूद मौहम्मद इमाजुद्दीन शोख द्वारा जाकिर हुसैन के क्रशर से 14.03.2023 को कुल 17 ट्रेक्टर स्टोन चिप्स बिना चालान के विक्री करने के संबंध में लिखित बयान दिया गया। पुछताछ के क्रम में यह पता चला की उक्त क्रशर संचालकों द्वारा बिना परिवहन चालान के पत्थर का प्रेषण किया जाता है।

उपरोक्त क्रशर संचालकों का नाम पता निम्न प्रकार है:-

(1) सलीम शेख, पिता- सेनाउल शेख, ग्राम- जयकिष्टोपुर,जिला- पाकुड़, मौजा-कालिदासपुर, अंचल- पाकुड़।*

(2) अब्दुल हमीद शेख, पिता- मनजारूल शेख, ग्राम- कालिदासपुर, जिला- पाकुड़, मौजा- कालिदासपुर, अंचल-पाकुड़।*

(3) जाकिर हुसैन, पिता- हजरत अली, ग्राम +पोस्ट- मनिरापुर, मौजा- मानसिंहपुर, जिला-पाकुड़, मौजा-कालिदासपुर,अंचल-पाकुड़।*
(4) सुविर कुमार साहा, पिता- स्वर्गीय दीनानाथ साहा, पता- आनंदपुरी कॉलोनी, जिला- पाकुड़, मौजा- कालिदासपुर, अंचल-पाकुड़।*

वर्णित ट्रैक्टरों के मालिकों, चालकों एवं खनिज विक्रेताओं के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज एवं जप्त ट्रैक्टरों के विरुद्ध राजसात की कार्रवाई की जाएगी। साथ ही साथ क्रशर संचालक का डीलर लाइसेंस को तत्काल प्रभाव से सस्पेंड किया गया है।

रीता की रीत है , समाज के दर्द को बाँटना, लेकिन राज की तरह गुमनाम हैं रीता राज

कहते हैं कि औरों का गम देखा, तो मैं अपने गम को भूल गया। ये एक शायरी हो सकती है, लेकिन इसे जीनेवाले भी हैं दुनियाँ में।

बहुत दूर नज़र दौड़ाने की ज़रुरत नहीं, देवघर में एक देवी मनुष्य रूप में ऐसी ही मिल जाएगी। नाम है रीता राज। रीता ने सेवा को अपनी रीत बना रखी है , और राज ये कि पता नहीं क्यूँ कलमबाज़ों की नज़र उनपर नहीं पड़ती। हँलांकि सभी ऐसे नही, पत्रकार आशुतोष झा ने बीते कल रीताजी को बताया कि एक बुजुर्ग को उसके घरवाले बीमार स्थिति में अस्पताल छोड़ गए हैं। कोई घरवाला उनकी हालत जानने और घर लिवा जाने तक नहीं आया।

बुजुर्ग को मिठाई खिलाती रीता

पत्रकार आशुतोष से ख़बर मिलते ही दौड़ पड़ी रीता अस्पताल की ओर। बुजुर्ग से मिली, हालात जानी। ममतामयी मातृस्वरूपा ने पहले उन्हें मिठाई खिलाई और भी बहुत कुछ खिलाया। अपनी ममतामयी बातों से उस अनजान बुजुर्ग के दिलोदिमाग को सहलाया। फिर उनके बेटे से फोन पर बात की। चूँकि पत्रकार आशुतोष जी वहाँ थे तो कुछ चित्र भी क्लिक हो गया।

अब बुजुर्ग के घर तक वापस जाने में मदद तो रीता करती रहेंगी, लेकिन सिर्फ़ इतना भर रीता नहीं हैं। गरीब बच्चों को क़िताब, वस्त्र और जन्मदिन या कोई त्योहार का बहाना बना रीता सेवा की अपनी रीत चलाती रहतीं हैं। इसलिए उन्होंने एक संस्था तक बना डाली। उनकी सहेलियाँ और पहचान वाले उनके संस्था की मदद कर रीता को अपनी ममता बाँटने में सहयोग करती है, लेकिन आशुतोष जैसे कोई और उनके साथ खड़ा नही होता। परिणामस्वरूप रीता जी राज ही बनी हुई हैं, उनके कार्यों को जो सराहना मिलनी चाहिए, वो नहीं मिल रही।

कोई अकेली अगर चली है ऐसे राह पर, जो मजबूरों-कमज़ोरों की दर्द को सहलाती है, तो इस मातृस्वरूपिणी को समाज ने सिर्फ़ राज भर बनाकर क्यूँ छोड़ रखी है। क्या हम सभी उनके साथ खड़े नहीं हो सकते ? ये सवाल मुझे कुरेदती है। शायद रीता राज जी को कुरेदती होगी।

खैर उस बुजुर्ग को रीता जी ने तो अपनी ममता से सींचा है, लेकिन उनके घरवालों को भी मद्धम पड़ी उजाले को घर ले जाना चाहिए। वे लोग ये न भूलें कि इसी बुजुर्ग ने अपनी जवानी में दिया बन जलकर पूरे परिवार को रोशनी दी होगी।

मगरमच्छ , मगर पूरे जीवन में नहीं किया मांसभक्षण , ईश्वर के सानिध्य में बीता जीवन।

*जानवर हो कर महात्मा के रुप में मोक्ष प्राप्त किया 🙏🙏*

*पशु योनि में जन्म लेकर भी ईश्वर के सान्निध्य में जीवन यापन किया। कासरगोड के हरि मंदिर के तालाब में सारा जीवन व्यतीत करते हुए, कभी किसी को कोई हानि नहीं पहुंचाई।*

*मांसभोजी शरीर पाकर भी कभी मांस का सेवन नहीं किया, किसी छोटे मोटे जीव तक को नुकसान नहीं पहुंचाया मंदिर के प्रसाद के रूप में प्राप्त गुड़ – चावल पर ही गुजारा किया।*

*75 वर्ष की आयु, 10 अक्टूबर 2022 को देहत्याग कर श्रीहरि के चरण कमलों में स्थान प्राप्त किया। इस असाधारण जीव को पिछले 70 वर्षो से मंदिर और तालाब का रक्षक माना जाता था, लाखों लोग मात्र उसे देखने मंदिर आते थे।*

*ऐसा अभूतपूर्व और विलक्षण जीवन जीने वाले ग्राह श्रेष्ठ ‘बाबिया’ को शत शत नमन।*

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