Sunday, December 22, 2024
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प्राचार्य लोहरा ने मनवाया अपने कार्यों से लोहा , होंगे राष्ट्र गौरव से सम्मानित

डॉ०एस०पी० लोहरा राष्ट्र गौरव अवार्ड से होंगे सम्मानित
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ग्राम-गुतरु,प्रखण्ड-बुढ़मू,राँची (झारखण्ड)निवासी तथा वर्तमान में के०के०एम०कॉलेज पाकुड़(एस०के०एम०यू०दुमका)के प्रभारी प्राचार्य डॉ०शिवप्रसाद लोहरा को भव्या फाउंडेशन जयपुर की ओर से शिक्षा,साहित्य और समाजसेवा के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस एंड नेशनल अवार्ड सेरेमनी -राष्ट्र गौरव अवार्ड -2022 के एक भव्य समारोह में राष्ट्र गौरव अवार्ड से सम्मानित किया जायेगा,विशेष समारोह में इस अवार्ड को प्राप्त करने के लिए देश -विदेश से चयनित कई नामचीन हस्तियां शामिल होंगे,डॉ०लोहरा ने इस अवार्ड के लिए चयनित किये जाने पर भव्या फाउंडेशन जयपुर के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा कि निश्चित ही मुझे इस अवार्ड से जीवन के हर एक अच्छे क्षेत्रों में सकारात्मक योगदान हेतु अधिक उत्साह और मनोबल प्राप्त हुआ है,अपने आत्मसंतोष के लिए कर्तव्य भावना से अपने साथ दूसरे जरूरतमंदों के लिए भी कुछ अच्छा काम करके उनके चेहरे पर मुस्कान लाने का प्रयास कर अपने दिल में सुकून महसूस करना चाहेंगे,उन्होंने इस बड़ी उपलब्धि का श्रेय ईश्वर,अपने माता-पिता ,गुरुजन एवं शुभचिंतकों को दिया है ।

पंचायत चुनाव में मत का करें दान , वोट की कीमत लगाने वालों को नकारे

झारखंड में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव की प्रक्रिया चल रही है, फ़िलवक्त नामांकन की प्रक्रिया शबाब पर है।

एक और चीज़ अपने शबाब पर अपने है, वो है चुनावी चर्चा।
गाँव, गली,कपाल चाय-पान की दुकान और ऐसी हर जगह जहाँ लोग किसी न किसी कारण जुट रहे हैं, यहाँ तक कि शादी-ब्याह के घरों तक में बस पंचायत चुनाव पर ही चर्चा ए आम है।
कहीं नाराज़गी तो कहीं पक्ष के तर्क खुलकर इन चर्चाओं की महफ़िल में परोसे जा रहे हैं।
एक वर्ग और सुसुप्तावस्था में सक्रिय है , जो मौसमी तौर पर चुनावी दावे करते हैं , लेकिन ये दावे , वो दावे करने वालों नेताओं से करते हैं , कि अग़र उन्हें खुश रखा गया तो उनके हाथ में इतने वोट हैं, जो उन्हें ख़ुश रखने वाले को दिला सकते हैं। उनके पास सभी स्वयंभू आँकड़े होते हैं, जिसे वे तर्कों के साथ परोसते हैं।
खैर ये मौसमी रोजगार वाले लोग हैं जो कुछ ऐसे समय मे अपनी रोटी सेंक जाते हैं, और फिर जीतने वाले लोग अपने पूरे कार्यकाल में सिर्फ़ रोटियाँ ही सेंकते हैं।
इस पूरे खेल में जो पीसे और सेंके जाते हैं, वो इस पूरी प्रक्रिया के सबसे मजबूत और महत्वपूर्ण कड़ी मतदाता हैं, और यही मजबूत कड़ी अन्ततः सबसे मजबूर नज़र आती हैं।
इसलिए अपनी क़ीमती वोटों को क़ीमत के एवज में नहीं बाँटना चाहिए।
लेकिन कई बार मैंनें देखा-अहसासा है , कि कई जगह वोट बेचनेवालों को इसकी क़ीमत कार्यालयों के चक्कर लगाते ही देना पड़ता है, चाहे वो कार्यालय सरकारी हो या फ़िर जीते हुए नेताजी का।
पत्रकारिता के साथ मैं आदतन समाजसेवा के 15-16 वर्ष बिताने के बाद चुनावी राजनीति को समझने के लिए तकरीबन डेढ़-दो दशक पहले चुनावी मैदान में ताल ठोक बैठा हूँ ।
मैंनें सुन रखा था, कि मत ख़रीदे भी जाते हैं। मैं इसे समझ नहीं पाता था, आख़िर कैसे ! अगर कोई बिकने के बाज़ार में दिखे तब तो ख़रीदना सम्भव होगा, लेकिन यहाँ तो कोई बाज़ार मुझे दिखता ही नहीं था।
इस बाज़ार से परिचय ज़रुरी था , मेरी जिज्ञासा की हठ ने मुझे चुनावी मैदान में उतार दिया। मेरे उतरने भर की देरी थी वोट मैनेज करनेवाले दावेदार मुझ तक पहुँचने लगे।
पूरी प्रक्रिया, पूरी होते होते मैं पूरी बात-बाज़ार और बहुत कुछ पूरी तरह समझ और मस्तिष्क में पिरो गया।
यहाँ ग़ज़ब तरीका है बेचने और खरीदने का।
इसमें नेता वोट , बीचवाले वोटों के दावेदार नोट और मतदाता सिर्फ़ आश्वासन के घूँट समेटते हैं , मुर्गे और बकरे जान गंवाते हैं।
पूरी प्रक्रिया के दौरान सरकारी अफसरों , अमलों और पुलिस वालों को न चैन की घड़ी और भोजन तक का समय नही मिलता।
लेकिन इधर नेताओं और उन्हें नेता बनाने वालों की ख़ूब छनती हैं।
शराब की बोतलों और मुर्गे-बकरों की बोटियों पर वोटों के बाज़ार का माहौल तैयार होता है और फिर मतदान के पहले की अंतिम रात ही फैसला नतीजों में बदल चुका होता है जो मतपेटियों में जाने भर की औपचारिकता पूरी करने के लिए अंतिम रात की सुबह होती है।
बाज़ार सजने को आतुर है, प्रक्रियाएं चल रही है, शासन-प्रशासन रेस है , चुनाव आयोग क्रियाशील है।
अब मतदाताओं की बारी है, गाँव की सरकार बनेगी , काम करने वाले लोगों को चुनकर अपनी सरकार बनाइये ।
किसी लोभ-मोह में बिना फँसे, पूरे सरकारी तंत्र की मेहनत को साकार करते हुए मत का दान करने का संकल्प लें, ये लोकतंत्र का संस्कार है , इस पर दाग न लगे।

आत्मघाती पत्रकारिता पर कब संभलेंगे हम ?

*आत्मघाती पत्रकारिता से बचने का उपाय तत्काल खोजना आवश्यक है*

  • पल्लव
    जिंदगी बरबाद करने का हक नहीं: पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि का बयान बेहद गंभीर बहस की मांग करता है। तीन दिन पहले अपने चार पन्ने के बयान में दिशा ने पत्रकारिता को जमकर कोसा है। दिशा रवि ने साफ कहा, ‘मीडिया ने मुझे मुजरिम बना दिया। मेरे अधिकारों का हनन हुआ, मेरी तस्वीरें पूरे मीडिया में फैल गईं, मुझे मुजरिम करार दे दिया गया-कोर्ट के द्वारा नहीं, टीआरपी की चाह वाले टीवी स्क्रीन पर। मेरे बारे में काल्पनिक बातें गढ़ी गईं’।

दिशा रवि ने आगे लिखा है, ’विचार नहीं मरते। सच हमेशा बाहर आता है। चाहे वह कितना ही समय ले ले। लेकिन मीडिया को ऐसा नहीं करना चाहिए था। न्याय का प्राकृतिक सिद्धांत भी यही कहता है कि सौ मुजरिम चाहे छूट जाएं, लेकिन किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए।’

दिशा के मामले में जो भी होगा, वह अदालत तय करेगी। पर पत्रकारिता के तमाम अवतारों में उसे अपराधी करार दे दिया गया। मीडिया ट्रायल करके किसी नौजवान की जिंदगी बरबाद करने का किसको हक है? क्या किसी सभ्य लोकतांत्रिक समाज में पत्रकारिता को इतनी गैर जिम्मेदारी की छूट दी जानी चाहिए?

न्यायालय की छवि दरकती है: सप्ताह भर भी नहीं हुआ जब भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए बोबड़े ने भी ऐसी ही एक टिप्पणी की थी। दुष्कर्म के एक मामले की रिपोर्टिंग पर उनकी राय थी कि मीडिया ने गलत रिपोर्टिंग की। एक किशोरी से न्यायालय ने आरोपित को ब्याह रचाने का कोई सुझाव ही नहीं दिया था। पत्रकारों ने उसे गलत अंदाज में परोसा। न्यायालय ने मामले के तथ्यों, दस्तावेजों और सुबूतों के आधार पर पूछा था कि क्या आप पीड़िता से विवाह कर रहे हैं? अदालत में प्रमाण थे कि दोनों पक्ष आपस में शादी की बात कर रहे हैं। माननीय मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि इस तरह की रिपोर्टिंग से न्यायालय और न्यायाधीशों की छवि तथा प्रतिष्ठा पर आंच आती है। जनमानस में इस लोकतांत्रिक शीर्ष संस्था के बारे में भ्रम फलता है। यह उचित नहीं है। यदि सर्वोच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाघीश को यह टिप्पणी करनी पड़ जाए तो लोकतंत्र के इस स्वयंभू चौथे स्तंभ के लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। जानता हूं कि यह तनिक कठोर टिप्पणी है, मगर जिंदगी में एक अवसर आता है जब संयम की परीक्षा में उत्तीर्ण होने की इच्छा भी दम तोड़ देती है।

टूट रहे हैं जम्हूरियत के पाए: मैंने इस स्तंभ में पिछले वर्षों में लगातार इस बात को उठाया है कि यह बात हिन्दुस्तान के मीडिया को समझनी होगी कि गैरजिम्मेदार पत्रकारिता की भी सीमा होती है। आप अनंत काल तक पतन के गड्ढे में नीचे नहीं गिर सकते। जब आप उसकी तलहटी में पहुंचेंगे तो सिवाय दम तोड़ने के कुछ नहीं बचेगा। यदि बिरादरी की ओर से यह तर्क भी दिया जाए कि जब जम्हूरियत के सारे पाए टूट रहे हैं, दरक रहे हैं तो पत्रकारिता के उसूलों की रक्षा कैसे की जा सकती है तो निवेदन है कि यही तो परीक्षा-काल है। गांधी एक विलक्षण और बेजोड़ संपादक थे। उन्हें भी क्रोध आता था। वे विचलित भी होते थे, लेकिन कोई मुसीबत, आफत या संकट उन्हें अपने रास्ते से डिगा नहीं सका। आज बड़े-बड़े अखबारनवीस राह से भटके दिखाई देते हैं। आज नहीं तो कल उन्हें हकीकत का सामना करना ही होगा। लेकिन तब तक वे पेशे का बेड़ा गर्क कर चुके होंगे। इसलिए आत्मघाती पत्रकारिता से बचने का उपाय तत्काल खोजना आवश्यक है। प्रत्यास्थता के चरम बिंदु पर पहुंचने से पहले ही संभल जाएं तो बेहतर है ।

एक ऐसा शहर पाकुड़ , जिनकी गलियों में कराहती है रविंद्र और नज़रुल की संस्कृति

पाकुड़ बिहार एकत्रित के समय से बंगाल की संस्कृति से प्रभावित रहा है।, उस समय कहने को तो पाकुड़ बिहार में था, लेकिन पाकुड़ की गलियों में बंगाल की संस्कृति की महक जीती थी। संध्या होते ही हर घर से संख और उलू की आवाज के बाद हारमोनियम और तबले की संगत पर रविंद्र संगीत तथा नज़रुल गीति के बोल सुनाई पड़ते थे।

आज भी पाकुड़ की हर गलियों, सड़क चोंक-चौराहों एवं हर ग्रामीण सड़क पर बंगाल की संस्कृति ही जीती नज़र आती है।
यह बात और है, कि उस समय बंगाल की संस्कृति की सौंधी महक के साथ गुदड़ी में ही सही रविंद्र और नज़रुल गीति की महक पाकुड़ को महकाती थी, लेकिन आज बंगाल की बेलगाम कानून व्यवस्था की दुर्गंध तथा बारूद की गंध के साथ , बालू और अवैध कोयले की खनन तथा परिवहन दुर्गंध यहाँ गमकती है।
पाकुड़ की ये बंगाल की गमक और धमक लिए संस्कृति अब जंगल पहाड़ों तक पर अवैध कोयला खनन के रूप में पहुँच गया है।
शायद ही यहाँ की कोई सड़क और गली तक इस तरह के अवैध परिवहन से अछूता रह गया हो। हर सड़क गली यहाँ दिन रात इसकी वानगी बताती कहती नज़र आ जाती है।
और तो और यहाँ की पुलिस और प्रशासन भी इन अवैध करनेवालों के सामने बंगाल की तर्ज़ पर भी बेबस नज़र आती है। थानों के सामने और प्रशासन के नाक के नीचे से अवैध कारोबारी आँखों से काजल तक चुरा ले जाते हैं, और राजनैतिक संरक्षण की छांव और पोषण के साथ स्वार्थजनित उदासीनता पुलिस तथा प्रशासन को बेबस बनाये रखता है।
बम बनाते हुए विष्फोट हो या अवैध खनिजों और लकड़ी सहित वनोत्पादों का अवैध दोहनों के शोर में रविंद्र संगीत और नज़रुल गीति की आत्मा के क्रंदन की सिसकियाँ किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की संवेदना को लहूलुहान होने से नहीं रोक सकता इन दिनों।
” पाकुड़ की सांस्कृतिक गलियाँ इन दिनों बस यही दर्द से कराहती हुई कहती नज़र आतीं है–
  कि ” कैसी चली है अबके हवा तेरे शहर में,
          बंदे भी बन गए हैं ख़ुदा तेरे शहर में “

डिजिटली भी सत्संगति से सम्भव है स्वयं का परिष्करण

सन्तों की संगति मनुष्य के सिर्फ़ स्वभाव को सुंदर नहीं बनता, बल्कि दिल-दिमाग के साथ व्यक्ति के चिंतन और दूरदृष्टि को भी परिष्कृत तथा स्वस्थ करता है।

ये संगति सन्तों की कई प्रकार की होती है-
पहली संगति तो आप या मैं स्वयं संत के भौतिक रूप के साथ रह कर प्राप्त कर सकते हैं, दूसरी कि हम उनका चिंतन, मनन तथा उनके द्वारा कहे या लिखे गए को पढ़ें सुने आदि।
आज की डिजिटल दुनियाँ में दूसरा पहलू ज़्यादा सुलभ है,ऐसे भी जो संत या महापुरुष भौतिक नश्वर शरीर का त्याग कर चुके हैं, डिजिटल दुनियाँ हमें उनके चिंतनों से भी परिचित करवाता हैं।
बाबा कीनाराम शिष्य परम्परा के अघोरेश्वर संत भगवान स्वरूप को प्राप्त कर अवधूत राम बाबा ने किस तरह अध्यात्म और आध्यात्मिक सिद्धान्तों के परे आध्यात्मिक जीवन और देश तथा पीड़ित समाज की सेवा को ईश्वरीय कार्य से जोड़कर सुलभ बनाया है,इसे मैं फ़िर कभी लिखूँगा , लेकिन समय समय पर उनके चिंतनों का प्रसाद मुझे डिजिटली पठन पाठन में मिलता रहता है। उन्हीं में से एक कथा मैं यहाँ अपने मित्रों से साझा करना चाहता हूँ।
” एक नाविक एक साधु को प्रतिदिन नदी के उसपार ले जाता और ले आता था।
साधु इस दौरान नाविक को धर्म की कथाएँ सुनता था, नाविक भी आनन्द के साथ चुपचाप साधुवचन का रसास्वादन करता रहता । बदले में नाविक साधु से लाख प्रयासों के बाद भी कोई पारिश्रमिक नही लेता।
मानव स्वभावबस साधु नाविक के साथ उसकी सरलता के कारण बंधता चला गया।
संत कथा श्रवण की पात्रता एवं नाविक के व्यवहार से प्रशन्न साधु ने एक दिन नाविक से अपने आश्रम चलने का आग्रह किया , नाविक संत के आश्रम में गया।
नाविक को साधु ने अपनी कहानी सुनाते हुए बताया कि पहले वह व्यापार करता था , एक सुंदर सांसारिक जीवन व्यतीत करता था।
एक आपदा में उसका पूरा परिवार चल बसा , और वह गृह त्याग कर साधु बन गया।
इसके बाद साधु ने नाविक से कहा कि उसके पास आश्रम में उसके व्यापार से कमाए बहुत धन है, जो वह नाविक को देना चाहता है।
साधु ने कहा कि ये धन अब मेरे किसी काम के नही , तुम परिवार वाले और सांसारिक हो , इस धन से तुम्हारी सभी आवश्यकताएं पूरी हो जाएंगी।
लेकिन नाविक ने वो धन लेने से मना कर दिया।
उसने कहा कि इस धन से मैं और मेरा परिवार न सिर्फ़ अलसी – कामचोर हो जाऊँगा बल्कि मेरे बच्चों का भविष्य भी ऐसे में बर्बाद हो जाएगा।
ऐसे में साधु कौन है ?
वो जो परिवार के खोने के बाद विरक्ति में गृह त्याग तो सकता है, लेकिन धन आश्रम तक ढो लाया है , या फ़िर वो नाविक जो मुफ़्त में मिल रहे स्वप्नातीत अगाध धन को नकार कर अपने मेहनत पर जीवन यापन चाहता है ?
यहाँ साधु की संगति ने नाविक को साधु से भी बड़ा साधु बना दिया।
खैर यहाँ सिर्फ़ संगति ही अपने गुणों को सावित करता है।
ये मैंनें भी अपने जीवन में अहसास किया है, कि संगति स्वभाव, व्यवहार , चिंतन मनन एवं जीवन पर अपना प्रभाव छोड़ ही जाता है।
इसलिए कम से कम डिजिटली सन्तों के विचारों और जीवन का अध्ययन कर स्वयं के हर पहलू को परिष्कृत जरूर करना चाहिए।

राज्य के सबसे बड़े साहब बनते ही अपना वादा भूल गए हजूर, ये तो वादाखिलाफी है !😢

 

शिक्षाविद निर्मल मुर्मू की कलम से —-

 

एक बार फिर से युवाओं के सपनें को जोरदार धक्का लगा।
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जब झारखंड के युवाओं ने भरी सदन में झारखंड के लोकप्रिय मुख्यमंत्री माननीय हेमंत सोरेन जी को यह कहते हुए सुना कि हमने 5 लाख सरकारी नौकरी नहीं, रोजगार का वादा किया था और स्थानीय नीति खतियान आधारित कभी नहीं बन सकती हैं। क्योंकि झारखंड के युवाओं ने युवा मुख्यमंत्री को बहुत ही आस भरी निगाहों से देखी थी उनसे ऐसी बातों का कभी उम्मीद ही नहीं किया थे। आज युवाओं के सपनें को फिर से जोरदार धक्का लगा और टूट कर बिखर गई। उन युवाओं का क्या होगा जो दिन रात नौकरी की आस में तैयारी कर रहे हैं, डिग्रियां ले रहे हैं, घर द्वार छोड़कर तैयारी करने में जुटे हुए हैं। और उन अभिभावकों का भी क्या होगा? जो खून पसीना बहा कर है सारे धनराशि अपना बेटा बेटी की पढ़ाई में लगा देते हैं।

वादा तो आपने मुख्यमंत्री जी बहुत सारा किया था। आपने कहा था बेरोजगार युवाओं को 5 हजार और 7 हजार बेरोजगारी भत्ता देंगे, 3 लाख का आवास देंगे, अनुबंध कर्मियों को नियमित करेंगे, 1932 का खतियान लागू करेंगे, समान काम का समान वेतन देंगे, निजी क्षेत्र में 75 प्रतिशत आरक्षण लागू करेंगे आदि जो अभी गिना पाना संभव नहीं है, लेकिन इससे भी युवाओं को कोई फर्क नहीं पड़ता था। उनका सपना को तब धक्का लगा जब आपने कहा हम नौकरी की बात नहीं रोजगार की बात किए हैं और खतियान आधारित स्थानीय नीति और नियोजन नीति नहीं बना सकते।

क्या इसी झारखंड के लिए यहां के युवाओं ने, नौजवानों ने, मां बहनों ने और बुजुर्गों ने अपना खून पसीना बहा कर झारखंड की लड़ाई लड़ी थी? झारखण्ड मिलने के बाद भी अगर यहां के लोगों को रोजगार ना मिले, उनको अपना हक ना मिले, उनका यहां कोई पहचान ना हो, बाहरी लोगों से ठगा महसूस करें, तो ऐसे झारखंड का क्या औचित्य है? सुन लीजिए मुख्यमंत्री जी यहां के लोग अगर झारखंड को लड़कर ले सकते हैं तो आपसे सत्ता छिनने का हिम्मत भी रखते हैं।वह दिन दूर नहीं कि आप खुद को झारखंड का दूसरा राहुल गांधी महसूस करेंगे।

✍️ निर्मल मुर्मू

इस अपने बनाये दोपायों को इंसान बना दो भगवान

आख़िर किसी इंसान की मौत में हम देश, राज्य , जाति , सम्प्रदाय , धर्म आदि पर ध्यान देते हुए या समीक्षा करते हुए अपनी प्रतिक्रिया कैसे दे सकते है ?

हमारी सोच , मानसिकता और चिंतन इतना पंगु, इतना विकलांग कैसे हो सकता है ?
कल तक कश्मीरी पंडितों पर बनी फ़िल्म पर नफ़रतों के आरोप का रुदन करनेवाले रुदालियों को क्या हो गया, कि पश्चिम बंगाल के वीरभूम की घटना पर क्या हो गया कि उनके दहाड़ें मारती रुदन ख़ामोश हैं ?
हँलांकि यहाँ ममता शासन है, और मरने – मारने वाले एक ही समुदाय के हैं, तो क्या वे इंसान नहीं है ?
यह भी सच है, कि दीदी हर जगह और हर किसी को मानसिकता और कर्मों पर स्वयं पहरेदारी नही कर सकती, लेकिन ऐसी विकलांग और हिंसक तथा कानून को धता बतानेवाली मास मानसिकता कहाँ से आईं ?
बहुत दुखद घटना
वहाँ पार्टी वाले नही, हिन्दू मुस्लिम नही इंसानियत को जलाया गया है, इंसानियत की हत्या हुई है।
फ़िर भी तथाकथित इंसानियत पर मगरमच्छी आँसू बहाकर दहाड़ें मार कर रोने वाले चुप्प ?
इतनी ख़ामोशी क्यूँ है भाई !😢
घटना इतनी शर्मनाक और अमानवीय है, कि स्वयं भी आईने के सामने जाने में मुझे व्यक्तिगत रुप से झिझक होती है, हम भी तो उन्हीं मरने- मरनेवालों और गहरी बेशर्म चुप्पी साधनेवाले जैसे ही दिखते हैं 😢
हे भगवान अब तुम्हीं इन दोपायों को जो दिखते सिर्फ़ मनुष्य जैसे हैं, इन्हें मनुष्य बनाओ।
तुम ही सिर्फ़ तुम ही , जिस भी नाम से जाने जाओ , तुम ईश्वर , अल्लाह ,भगवान जो भी हो इन्हें मनुष्य बनाओ हे सर्वशक्तिमान ।
अब नीचे वालों पर विश्वास , कम से कम मेरी तो नही रह गई है।
देखो तुम्हारे बनाये इन्सानों को —😢

पाकुड़ जिले के कोल माइंस, रोज़गार के साधन या प्रताड़ना का अभिशाप , निर्णय करना मुश्किल

पाकुड़ जिला के पचुवाड़ा नॉर्थ ब्लॉक में WBPDCL/BGR कंपनी और दलालों का कला सच, उल्टे रैयतों के उपर ही केस करवा डाला।
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  • लेखक सन्थाल साहित्य और समाज के जानकार के साथ समाजसेवी तथा शिक्षाविद हैं । लेलेखक निर्मल मुर्मू मेरे छोटे भाई भी है। कई अख़बारों में पढ़ा कोल माइंस में बंदी से बड़ा नुकसान हुआ है।सरकार और कम्पनी को हुए नुकसान तो पढ़ लिया, जान लिया।
  1. निर्मल जी के अलग नजरिये को भी जानना ज़रूरी है, और सवाल भी बनता है, कि क्या अपने अधिकार के लिए बहरी सरकार और कम्पनी को नुकसान की चोट पर जगाना गुनाह है ? आगे निर्मल जी को पढ़ें—–

ही में पाकुड़ जिला के आमड़ापाड़ा थाना में बिशुनपुर गांव के तकरीबन 13 महिला/पुरुषों के उपर एक मामला दर्ज किया गया है जिसका कांड संख्या- 20/22 और भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत धारा- 143,149,341,353, एवं 427 लगाया गया है। आप जानते हैं क्यों?
क्योंकि इन लोगों ने अपने गांव में अपनी जल, जंगल,जमीन और भाषा और संस्कृति की रक्षा के लिए अपने ही जमीन पर चोड़का गढ़ा है। प्रशासन और दलालों को इसी बात का रास नहीं आया और केस कर डाला। अरे हम अपनी जमीन पर चोढ़का नहीं गढ़ेंगे तो तुम्हारा बाप का जमीन पर चोड़का गाढ़ेंगे?
मैं बात कर रहा हूं रूर प्रदेश कहे जाने वाले झारखण्ड के सबसे पिछड़े जिला के रूप में सुमार पाकुड़ का। पाकुड़ जिला का आमड़ापाड़ा प्रखंड कोयला के लिए बिख्यात है। यहां पर प्रचुर मात्रा में अच्छे किस्म का कोयला पाये जाते हैैं।इसका उत्खनन का काम बहुत पहले से ही चला आ रहा है। बीच में थोड़ा दिन बंद भी हुआ था क्योंकि कोल माफियाओं ने खादी की सहायता से खुब बड़ा घोटाला का आंजम दिया था। तत्कालीन कंपनियों ने अपना झोला तो खूब भरा, जाते जाते यहां के जान माल के साथ साथ सरकार को भी राजस्व का चूना लगा के गया। वर्तमान समय में यह काम पश्चिम बंगाल पॉवर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड (WBPDCL)/ बीजीआर कंपनी कर रही है। यह क्षेत्र शहर से दूर है और शिक्षा के जगत में तो बहुत ही पिछड़ा है। इसी का फायदा उठाकर कंपनी वहां के लोकल नेता, प्रशासन और दलालों की सहायता से रैयतों का जमीन ओने पौने भावों सौदा कर लेती है और कोयला उत्खनन का काम शुरू करती है और फिर शुरू होता है वहां के लोगों की शोषण की कहानी। क्योंकि माफिया और दलालों ने वहां के लोगों के बीच इतना दहशत और खौफ पैदा करके रखा है कि वहां के लोग कंपनी के विरोध में चुं शब्द भी बोलने का हिम्मत नहीं जुटा सकते। उनके जमीन से रोज करोड़ों का कारोबार हो रहा है, लेकिन उनका हालत देखकर आपको रोना आएगा। रोजगार के नाम पर तो ज़ोरदार तमाचा है। हाथ से जमीनें निकल चुकी है, मुआवजा की राशि भी ठीक से नहीं मिली है, विस्थापन के लाभ से भी कोसों दूर है। घर से भी बेदखल हो चुके हैं उनके नाम पर कॉलोनी तो बना है पर वह भी रहिसों के पान गुंठी के बराबर है।
सप्ताह दिन पहले वहां के क्षेत्रीय सांसद श्री विजय हांसदा और क्षेत्र विधायक श्री दिनेश मरांडी और जिला प्रशासन ने वहां के लोगों को गृह प्रवेश कराया लेकिन उनके लिए पशु शेड, धार्मिक स्थल, संस्कृतिक स्थल, खेल मैदान, अच्छा हॉस्पिटल और स्कूल का ख्याल नहीं आया? बस इसी के विरोध में वहां रैयतों ने बिगत 16 मार्च से आंदोलन शुरू कर दिया है और कोयला ढुलाई को ठप पड़ गई है। कोयला ढुलाई ठप होते ही माफिया और दलालों की किरकिरी शुरू हो गई। आंदोलन को एड़ी चोटी लगाकर दबाने की कोशिश किया जा रहा है। पहले प्रशासन और कुछ लोगों ने मिलकर वहां के लोगों को खूब समझाया बुझाया, लेकिन वहां के लोग सामने वालों की चाल और चरित्र को अच्छी तरह से समझ चुके थे इसलिए एक भी ना माने तो उन लोगों ने उल्टे रैयतों के ऊपर ही केस करवा दिया है। और धमकी दिया जा रहा है कि तुम लोग साले जेल में साड़ोगे। कभी खुले आसमान की चांद और सूरज को नहीं देख पाओगे। जिसका उल्लेख मैं ऊपर ही कर चुका हूं।
इन लोगों के ऊपर जबरन कोयला खदानों में खुदाई और ढुलाई बंद करने, सरकारी काम में बाधा पहुंचाने और राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान पहुंचाने सहित कई आरोप लगाया गया है। मैं सरकार से पूछना चाहता हूं इन कि इन लोगों ने क्या गलती किया है? क्या विस्थापन का लाभ मांगना कोई गुनाह है? क्या अपनी जमीन की रक्षा करना गुनाह है? क्या अपनी धार्मिक आस्था प्रकट करना गुनाह है? क्या जल, जंगल और जमीन की रक्षा करना गुनाह है? क्या वह अपनी जमीन पर भी हक नहीं जता सकते? ऐसे भी यह क्षेत्र पांचवी अनुसूची के अंतर्गत आता है और यहां एसपीटी एक्ट जैसा कड़ा कानून पहले से लागू है। इन लोगों ने आदिवासियों का जमीन किस तरह से अधिग्रहण किया? जबकि यहां का जमीन लीज में नहीं दिया जा सकता, दान पत्र में नहीं दिया जा सकता, किसी भी प्रकार से हस्तांतरण करना अवैध होगा, तो फिर इन लोगों से जमीन किस रूप में लिया गया? अगर लिया भी गया तो इन लोगों को पार्टनरशिप में क्यों नहीं रखा गया? इसलिए कि इन लोगों को फटे हाल में रखकर अपना जमीन का टुकड़ा चांद में सुरक्षित किया जा सके।
आज भी कंपनी में बहुत सारे लोग काम कर रहे हैं जो बाहर से आए हैं। क्या उनकी जमीन यहां पर है? क्या उनके बाप दादाओं ने यहां पर जमीनें तैयार किया था? क्या संताल परगना अलग करने के लिए उनके पूर्वजों ने बलिदानी दी थी? फिर उनके लोग यहां पर किस रूप में काम करने आ गए? क्या यहां के लोगों में योग्यता की कमी है? यहां के लोगों के साथ इस तरह का जुल्म क्यों किया जा रहा है?
मैं दाद देना चाहता हूं सोम हेम्ब्रम, सुशांति मराण्डी, दानियाल मुर्मू, रानी हांसदा,मकलू मुर्मू, मोनिका हांसदा,ठाकरान मुर्मू, मालती हेम्ब्रम,सुवल हेम्ब्रम,बोयला टुडू, पानी टुडू,लिलू किस्कू एवं जुनास मरांडी को, जिनके ऊपर में एफआईआर दर्ज किया गया है। आप लोग संघर्ष करिए मातृभूमि की रक्षा के लिए।खुन से सनी इस धरती का इतिहास ही तो बलिदान और संघर्ष का है।हम अपने घर में नहीं लड़ेंगे तो कहां लड़ेंगे? आप पंजाब में तो चोड़का गाड़ने नहीं ना जा रहे हैं, आप हरियाणा में तो चोड़का गाड़ने नहीं ना जा रहे हैं, आप पश्चिम बंगाल में तो चोड़का गाड़ने नहीं ना जा रहे हैं, आप विधायक जी का घर डुमरिया में तो चोड़का गाड़ने नहीं ना जा रहे हैं, आप सांसद महोदय का घर बरहरवा और बिहार में तो चोड़का गाड़ने नहीं ना जा रहे हैं, आप हेमंत जी का घर में भी चोड़का गाड़ने नहीं ना जा रहे हैं, आप बाबूलाल जी के घर में भी चोड़का गाड़ने नहीं जा रहे हैं, तो फिर डर किस बात का? हम अपनी जमीन पर चोड़का नहीं गाड़ेंगे तो कहां गाड़ेंगे? तुम्हारा बाप का जमीन में?
यहां के जनप्रतिनिधि पर भी धिक्कार है जो आधे अधूरे घर का चाबी थमाने तो जाते हैं लेकिन उनकी मूलभूत समास्याएं और आधारभूत संरचना का ख्याल नहीं रखते। दूसरी ओर उसके नाम पर सीएम साहब के यहां फोटो खिंचवाने चले जाते हैं। उसे भी हस्यसपद तो इस बात का मुझे लगता है जो अपने भाषण में कंपनी से वहां के लोगों को मांदर दिलाने की बात करते हैं। नेताजी उन लोगों को भाषा और संस्कृति का पाठ मत पढ़ाइए। उन्हें मालूम है अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा कैसे की जाती है? बात करना है तो अधिकार और रोजगार बात करिए। यह कैसे संभव है कि जख्म भी आप ही दीजिएगा और मरहम भी आप ही लगाएगा।
मैंने उन लोगों से बात किया तो पता चला कि वे लोग बहुत दहशत में है। बहुत सारे लोग चैन से सोते भी नहीं है। डर के साये में जिंदगी जीने को मजबूर हैं। उन लोगों को डर है कहीं नक्सली के नाम पर जिंदा सूट न करवा दे। कहीं अनाप-शनाप केस में फंसाकर जेल में न सड़वा दें। चिंता नहीं करना है मित्रों, डरना भी नहीं है। डटकर सामना करना है। भले ही दुनिया की आंखें बंद हो सकती है,लेकिन जिभ हमेशा खुली रहेगी।
और मैं क्या लिखूं इस पर यह आबोवाक् राज की सरकार है, वरना सरकार बदनाम हो जाएगी। बस आप लोग आगे देखते जाइए किसका हाथ घी में होगा और किसका हाथ की खिचड़ी में होगा। लेकिन अंदर ही अंदर बड़े आंदोलन की आग सुलग रही है कहीं यह आंदोलन सरकार और प्रशासन को राख में ना तब्दील कर दें।

✍️निर्मल मुर्मू।

बेदर्द महीने और कलम के सिपाहियों का ज़ख्म

आसमान को ऊँचाइयों की क्या बात करें हम,

पेट की गहराइयों में खो गया है आदमी

फरवरी मार्च और अप्रैल का महीना सरकार के विभाग और जिम्मेदारियां इतनी बेरहम हो जाती हैं कि हमें जीने नही देती।
इन्ही दिनों बच्चों की परीक्षाएं
टेक्स भरने के लिए नोटिशें
नगरपालिका ,बिजली विभाग , बैंक जैसे सभी बेरहमों के प्रेम पत्र और न जाने क्या क्या !
हे भगवान फिर बच्चों का रिएडमिशन, किताबें ड्रेस
सच में जीने पर भी सोचना पड़ जाता है
लेकिन सरकारें इन विषयों पर क्यों नही सोचती ?
मैं ये नही कहता कि सब माफ़ कर दो लेकिन सोचो यार
किश्तों में मारो
ये हक़ है आपको कि आप चाहे जो करें
मगर क़त्ल भी करें तो जरा प्यार से
खाश कर हम जैसे लोगों के लिए बड़ी समस्या है सरकार
क्योंकि ठहरे मुफ़सील पत्रकार और स्वाभिमानी बनने के ढोंग में विज्ञापन भी नही उठा पाते, अख़बार और टी भी वालों के कोर्ट पेंट , ए सी , बंगला, ठाट बाट सब हमारे खून पर ही चलते हैं । किसी तरह पमरिया , बन्दी चारण के तर्ज़ पर अपना जीवन बसर करते हैं , ताकि हमारे मालिकों को खून मिल सके।
और हाँ मेरा पारिवारिक बैकग्राउंड भी ऐसा है, कि अगर कहीं नॉकरी ….पार्ट या फूल टाइम जॉब भी मांगने जाते हैं, तो कोई विस्वास ही नही करता … हंस कर ठहाकों के साथ प्रेम से चाय वाय पिलाते हुए ये कह कर टाल जाते हैं कि आपको और नोकरी मज़ाक मत कीजिये साहब , देश विदेश ……………..
खैर टाल जाते हैं ,अब उनको कैसे समझाये कि हमको तो यही हमी होने ने मारा है
कभी बेबशी ने मारा
कभी बेकशी ने मारा
किस किस का नाम लूँ
मुझे हर किसी में मारा
बस सरकार और हालात से विनम्र प्रार्थना है कि हम जैसे बीच में लटके न अमीर न गरीब बन सके लोगों को जरा किश्तों में मारें तो बड़ी कृपा होगी।
मेरे जैसे मेरे सभी मित्रों को समर्पित
साथ ही भगवान से यह प्रार्थना भी कि कोई मित्र मेरे जैसा न हों।

सन्थाल परगना की उत्कृष्ट पत्रकारिता स्वर्गीय नन्दलाल परशुराम के नाम पर हर वर्ष होगी पुरस्कृत

संथालपरगना में पत्रकारिता पर अच्छा काम करने वाले पत्रकाराें का हर साल मिलेगा नंदलाल परशुरामका पत्रकारिता पुरस्कार
पल्लव, गोड्‌डा

मानव का यह दस्तुर है कि इंसान की मौत पर कुछ दिन तो लोग रोते हैं। याद करते हैं। बाद में उसे भूल जाते हैं। पर पत्रकार नंदलाल परशुरामका को लोग सदा याद रखे इसके लिए गोड्‌डा के पत्रकारों ने एक पहल किया है। संथालपरगना के छह जिलों में पत्रकारिता पर उत्कृष्ठ काम करने वाले पत्रकारों में से प्रत्येक साल एक का चयन कर उसे नंदलाल परशुरामका पत्रकारिता पुरस्कार से नवाजा जाएगा। इस पुरस्कार में नगद राशि के साथ प्रशस्ति पत्र भी दिया जाएगा। इस अवसर पर पत्रकारिता पर परिचर्चा का भी आयोजन किया जाएगा। जिसमेें संताल के पत्रकारों के साथ- साथ झारखंड और बिहार के पत्रकारों, संपादकों को भी आमंत्रित किया जाएगा। इसके लिए एक ज्यूरी टीम का भी गठन किया जाएगा, जो संथालपरगना में पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों के कार्यों का आकलन कर उसकी नाम का सिफारिश पुरस्कार के लिए करेगा।
नंदलाल परशुरामका की मौत के बाद यह सुझाव वरिष्ठ संपादक राघवेंद्र भाई ने दिया था। राघवेंद्र भाई का कहना था कि गोड्‌डा से इसकी शुरूआत की जाय, और यह हर जिले तक पहुंचे। जिससे पत्रकारिता की लौ जलाने वाले तथा अपने जीवन को तिल- तिल दूसरों के लिए जलाने वाले पत्रकार को लोग सदा याद रखे। पत्रकार दूसरे के लिए तो बहुत करते हैं, पर अपने समाज के लिए वे कुछ करने से कतराते हैं। इस बात को कई पत्रकार भाईयों के सामने रखा। पत्रकार तथा विधायक रहे प्रशांत मंडल सहित संतालपरगना के कई पत्रकार भाईयाें ने कहा कि यह निर्णय स्वागत योग्य है। इसका आयोजन हर साल किया जाए। हमलोग भी मदद करने को तैयार हैं।