Monday, December 23, 2024
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किसी ने मुनासिब नही समझा बुलबुली के माँ के दर्द को जानना

बुढ़िया की दर्द की बेचैनी बन जाती थी मनोरंजन का माध्यम

बात बहुत पुरानी है, है तो 1972 के बाद का वाकया, लेकिन कई तरह की सीख देनेवाली इस कहानी को मैनें 1990 के दशक में ख़ोज निकाली थी। हँलांकि कहानी का किरदार सांवली रंग, दुबली-पतली काया, लगभग कंकाल स्वरूपा, गहरी धंसी गोल आँखें जिनपर मोटा सा कांच का चश्मा, एक सफ़ेद साड़ी में लिपटी झारखंड के पाकुड़ जिले के राजापाड़ा की गलियों में घूमती बुढ़िया हर किसी को दिख जाती थी। उसके मोटे चश्में से किसी को निहारती आँखें न जाने कितनी दर्द की कहानियाँ कहतीं सी लगती थी, लेकिन बुलबुली की माँ के नाम से जाना जाने वाली इसके दर्द को कभी किसी ने जानने और समझने की ज़हमत नहीं उठाई थी।

हाँ बच्चों के झुंड और युवकों के समूह के लिए वो कंकालस्वरूपा बुढ़िया एक मनोरंजन का साधन मात्र था। जिस गली से वो गुजर जाती, मानो बच्चों और किशोरों के समूहों के हाथ कोई मनोरंजन की लॉटरी लग गई हो। महिला की वो काली छाया जिस गली में जाती, बच्चों और किशोरों के समूह से एक आवाज़ आती, “आलू पोटोलेर तोरकारी, बुलबुलीर माँ सोरकारी“।

बस ये आवाज़ बुढ़िया के कान तक पहुँचते ही मानो बुढ़िया को करंट लग गया हो, फिर बुढ़िया के हाथ मे पत्थर और गली में दौड़ लगा कर इधर-उधर भागते लोग। ये ज़रूरी नहीं कि वो पत्थर बुढ़िया उसी पर फ़ेंके जिसने उसे चिढ़ाया हो। वो पत्थर जब बुढ़िया के हाथ से छूटता, तो वो किसी को भी लग सकता था और फिर वो आख़री पत्थर भी तो नहीं होता, पूरी गली, मोहल्ले में तूफ़ान खड़ी कर देती थी वो मरियल सी कंकालस्वरूपा। आख़िर क्यूँ ऐसा होता कि जो हवा के एक झोंखे से ख़ुद को न सँभाल पाने की ताक़त रखने वाली बुढ़िया सिर्फ़ “आलू पोटोलेर तोरकारी बुलबुलीर माँ सोरकारी” बोलने भर से तूफ़ान खड़ा कर देती है। कई बार बिना क़सूर के मैं भी बुढ़िया के पत्थरों का शिकार हो चुका था।

बुढ़िया के पत्थरों ने मुझे कभी उतना दर्द नहीं दिया, जितना उसके गुस्से के कारणों की जिज्ञासा ने मुझे कर रखा था। कई बार बुढ़िया से कारण जानने के मेरे प्रयास ने मुझे बुढ़िया से पिटवा तो दिया, लेकिन मैं कारण जानने में असफ़ल रहा। बुलबुली की माँ, हाँ उसका तो अब नाम भी यही था, अपनी पहचान अपना नाम तक भूल चुकी वो बुढ़िया सिर्फ बुलबुली की माँ के नाम से ही जानी जाती थी।

अपने जीवन यापन के लिए बुढ़िया दूसरे के यहाँ झाड़ू पोछा और बर्तन माँजती थी। जिस घर में वो बुढ़िया बर्तन माँजती थी, उस घरवालों से मेरा अच्छा सम्बन्ध था। मैंनें बुलबुली की माँ के दर्द को समझने और उसकी गहरी धंसी आँखों के पीछे छूपी कहानियों को तलाशने के लिए उस घर के कुँए के पास बैठने की जगह बना ली। बुलबुली की माँ बर्तन माँजती और मैं उससे इधर उधर की बातें कर उसके दर्दों में झाँकने की कोशिश करता, लेकिन उस चिढ़ने वाली सवाल पर पहुँचते ही मैं पिट जाता।

मेरी जिज्ञासा ने न ज़िद छोड़ी और हर एक दो दिन के अंतराल पर बुलबुली की माँ ने मुझे पीटना। उस घर के लोग भी मुझे समझाते छोड़िए, आप क्यूँ इस पगली से मार खाते हैं! गर्म और किसी से न दब कर रहनेवाली मेरी आदतों को जानने वाले उस घर के लोग मेरे पिट जाने की धैर्य से अचंभित थे। लेकिन मेरी पत्रकारिता ने मुझे कभी हार न मानने की सीख दे रखी थी, मैं भी उस बुढ़िया में दफ़न दर्द को निकालने को आतुर था।

एक दिन बुढ़िया सब्जी बनाने वाली एक वज़नदार कड़ाई माँज रही थी, मेरे सवाल पर उसने जवाब में वो कड़ाई मेरे सर पर दे मारी, मेरा सर फूट गया, खून का फब्बारा मेरे सर से निकल पड़ा। इधर मेरे सर से खून निकल रहे थे, उधर वो कंकालस्वरूपा फूट फूट कर रो रही थी, मेरे सर और घाव को सहलाते हुए मलहम लगा रही थी। पत्थरों से पीछा कर मरनेवाली आज ममतामयी बन गई थी। मेरे बहते खून ने उसके आँसुओं की बांध को तोड़ दिया था। उसके आँसुओं के साथ उसकी दर्द की कहानी भी निकल आई। मेरा अथक प्रयास, पिटते रहने के धैर्य ने मानो उसे खुली क़िताब बना दिया था।

उसने बताया अपनी शादी से पहले वह एक सामर्थवान समृद्ध परिवार की लड़की थी। उसके पिता ने उसके अन्य भाई बहनों की तरह समय आने पर उसकी भी शादी एक खाते पीते समकक्ष परिवार मे कर दी। कालांतर में देश आज़ाद और विभाजन भी हुआ। विभाजन ने उसके मायके और ससुराल को भी पाकिस्तान (वर्तमान बंग्लादेश ) का नागरिक बना दिया।
और फिर दुर्भाग्य ने यहीं से घेरना शुरू किया। कट्टरपंथ ने उसके मायके को लील लिया।

इसी आग में उसके पति, एक मात्र बेटे की उसके सामने निर्मम हत्या कर दी गई। एक बेटी की सामुहिक ब्लातकार के बाद बीचों बीच उसके शरीर को फाड़ दिया। दो नन्ही जान सी बेटियों को लेकर वो शरणार्थी शिविर में आ गई। वहीं बीमारी से एक और बेटी चल बसी। फिर सबसे छोटी बुलबुली नामक बेटी के साथ वो पाकुड़ अपनी बहन के ससुराल आ गई, यहाँ भी बहन के ससुराल पक्ष ने उसे ज्यादा दिन नही रखा।

फिर घरों में घरेलू नोकरानी का काम कर पाकुड़ में ही भाड़े पर रहने लगी। पूरी दर्द की एक क़िताब बन चुकी और असहनीय दर्द से बेज़ार बुलबुली की माँ को शरणार्थी शिविर में मिलनेवाले खाने में रोज रोज आलू परवल की सब्जी से चीढ़ थी, शिविर में कभी कभी वो विद्रोह भी कर जाती थी। यही ख़बर पाकुड़ के बच्चों को भी पता चल गया था। बंगला में “आलू पोटोलेर तोरकारी बुलबुलीर माँ सोरकारी”

आम बच्चों और युवाओं के लिए तो एक कहावत और बुलबुली माँ की उग्र प्रतिक्रिया एक मनोरंजन मात्र था, लेकिन ये किसी को पता नहीं था, कि इतना कहना भर बुलबुली की माँ के सारे दर्द को कुरेद देता था। बुलबुली की माँ दशक पहले वहाँ चली गई, जहाँ अब उसे कोई दर्द न होगा और न दे पाएगा, लेकिन आज भी उनकी कहानी आज के राजनिज्ञों से सैकड़ों सवाल पूछती है।

अफ़सोस कि इन सवालों के जवाब हमारी राजनीति और व्यवस्था दे पातीं। 😥

गम्भीर विषयों पर सकारात्मक रूप से गम्भीर हैं उपायुक्त पाकुड़; सभी को जेल नहीं भेजना, जागरूकता और रोजगार है उपाय

ग्रामीणों के स्किल डेवलप कर रोजगार उपलब्ध कराने को लेकर पहल करने का दिया निर्देश

कोयला ढुलाई के दौरान चोरी को रोकने के लिए अधिकारियों को दिया जागरूक करने का निर्देश

समाहरण सभागार में उपायुक्त मृत्युंजय कुमार बरणवाल ने कोल कंपनी के प्रतिनिधियों के साथ बैठक की। बैठक में डब्लूपीडीसीएलपीएसपीसीएल के प्रतिनिधि शामिल हुए। बैठक में उपायुक्त ने भूमि अधिग्रहण को लेकर चर्चा करते हुए कहा कि भूमि अधिग्रहण को लेकर जितने मामले लंबित पड़े है। उसका जल्द निपटरा करें. वहीं उपायुक्त ने कोयला ढुलाई के दौरान हो रही चोरी को लेकर एसडीपीओ व संबंधित अधिकारियों को उसपर रोक लगाने की बात कही। साथ ही उन्होंने कहा कि कोयला ढुलाई जिस क्षेत्र होते हुए हो रहा है। वैसे गांवों के ग्रामीणों के साथ बैठक कर उन्हें जागरूक करने का कार्य करें. साथ ही वैसे लोग जिनके द्वारा कोयला चोरी का कार्य किया जा रहा है। वैसे लोगों को चिन्हित करते हुए धारा 107 के तहत कार्रवाई करने का निर्देश दिया. साथ ही कोल कपंनी के प्रतिनिधियों को कहा कि ग्रामीणों के रोजगार के लिए पहल करते हुए उनके स्किल डेप्लमेंट के लिए ट्रैनिंग प्रोग्राम चलाए। साथ ही उनके स्किल को डेप्लमेंट करते हुए उन्हें रोजगार उपलब्ध कराने का प्रयास करें।

अपर समाहर्ता श्रीमती मंजूरानी स्वांसी, अनुमंडल पदाधिकारी श्री हरिवंश पंडित, डीएसपी मुख्यालय वैद्यनाथ प्रसाद, डीपीआरओ डॉ. चंदन, अंचल अधिकारी अमड़ापाड़ा, डब्लूपीडीसीएल व पीएसपीसीएल के प्रतिनिधि मौजूद थे।

वाचिक विराम: प्रोफेसर मनमोहन मिश्र की अनुपम यादें और विचार

अपने बाल सखा श्रीकांत तिवारी के शव को श्मशान में ले जाते वक़्त अपने बूढ़े कांधे पर चचरी को लेते हुए, उन्होंने अनायास ही कहा, “चलिए पंडित आपको आपकी अंतिम यात्रा में अगुआ आएं, आप हमेशा सीनियर रहे, यहाँ भी आप ही सीनियर सही, मैं पीछे से आता हूँ, जगह हमरो राखियो पंडित” और फ़िर छलक पड़े थे उनके आँसू ऐसे
प्रोफेसर स्वर्गीय मनमोहन मिश्र का नाम लेते ही पाकुड़ में एक ऐसे व्यक्तित्व का चेहरा उभर कर सामने आता है, जिनके शब्दों की जादूगरी से हिन्दी साहित्य की समृद्धि का ज्ञान होता है। साहित्य की जितनी विधा है, उन सबके जीवंत रूप थे, अनजाने मन को भी मोह लेनेवाले के के एम कॉलेज पाकुड़ के प्रोफेसर, नगर के सर और मेरे काकू स्वर्गीय मनमोहन मिश्र।

उनके चिर विश्राम में गए कई वर्ष बीत गए, लेकिन हर सुबह आज भी उनकी आवाज़ सुनाई पड़ती है। मेरे पिता के बाल सखा रहे मिश्र साहब उसी कॉलेज में तथा उसी विभाग में व्यख्याता थे, जिसमें पिता श्री स्वर्गीय श्रीकांत तिवारी थे। इसलिए प्रतिदिन सुबह मेरे आवास पर वे आते और दरवाजे पर से ही पंडित की आवाज लगाते। हाँ इसी नाम से वे मेरे पिता को पुकारते थे। घण्टो उनकी बातें मैं सुनता। हिन्दी के व्यख्याता मनमोहन मिश्र में किस विषय की गहरी जानकारी नहीं थीं, यह कह पाना असंभव था।

प्रभात खबर
प्रभात खबर
साहित्य, इतिहास, अध्यात्म के हर पहलू और उसका विश्लेषण तथा उनपर उनका अनवरत वाचिक प्रस्तुतिकरण अविस्मरणीय था। किसी विषय पर उनको घण्टों सुनना एक विहंगम अनुभूति देता था।

वरिष्ठ पत्रकार, मेरे मित्र और मनमोहन मिश्र के पारिवारिक शिष्य डॉ० आर के नीरद की उनपर लिखी पुस्तक में उनके विषय में विस्तार से लेखन एवं संकलन ने उनपर कुछ और लिखना असम्भव सा कर दिया है। ये पुस्तक मिश्रा जी के साहित्यिक जीवन के तकरीबन हर पहलू को छूता है। (अमेजन पर यह पुस्तक एभेलेबुल है)

उनकी प्रत्युतपनमतित्व और व्यंग पर कुछ ना कहूँ तो शायद अन्यथा हो। एक बार वो मेरे पिता एवं की प्रोफेसरों के साथ मेरे बरामदे पर बातचीत में व्यस्त थे। इसी बीच एक बकरी आँगन में घुसकर फूल के पौधों को खाने लगी, मैं उसे बाहर करने दौड़ा, अचानक वे उठे और बकरी को बमुश्किल पकड़ लिया, उनके आदेश पर मैंने उनके साथ बकरी को करवट कर लिटा दिया, उन्होंने अपने रुमाल को उसके कान पर रखकर एक छोटे से ईंट के टुकड़े को रख दिया। पता नही बकरी इसके बाद घण्टों सोई रही। उसके बाद जब बकरी की मालकिन उसे ढूँढते वहाँ आई तो, बड़े आदर से उन्होंने बकरी की मालकिन से कहा आइये, आपकी बकरीरानी खाना खाकर आराम कर रही है। वहाँ उपस्थित सभी लोग हँस रहे थे, लेकिन मैं अचंभित था कि ज्ञान के इस महाभण्डार में, तथा वाचिक परम्परा के इस गम्भीर महानायक में आज भी एक नटखट बचपना कैसे जिंदा है!

उनके जीवंत व्यंग की दस्तानों में वो वाकया अचानक आज भी गुदगुदा जाता है, जब उन्हें अप्रेल के महीने एक सहकर्मी व्यख्याता ने यह कहा कि अब तो जूता उतार दिया जाय सर, मिश्रा साहब ने तपाक से जवाब दिया नहीं नहीं आपके सुधर जाने की सूचना मिल चुकी है। वहाँ ठहाकों की सम्मलित गूँज थी। किसी बात की क्षणभर में सार्थक प्रतिक्रिया व्यंग की चाशनी में लपेटकर कर देना उनकी विशेषता थी।

उनके मूल गाँव में बारात जाते समय लोग बरातियों में उनकी उपस्थिति की शर्त रखा करते थे। उस समय बाराती और शरतियो के बीच शास्रार्थ की परंपरा थी और प्रोफेसर स्वर्गीय मनमोहन मिश्र की उपस्थिति शास्रार्थ में विजय की गारण्टी होती थी। ज्ञान की पराकाष्ठा का दूसरा नाम थे मिश्रा काकू।

आर के नीरद की पुस्तक, शोध, पत्रकारिता, मेरी पत्रकारिता और न जाने कितने ही शब्द सन्यासियों को प्रोफेसर स्वर्गीय मनमोहन मिश्र ने दीक्षित किया। आज वे उसपार से भी अपने शिष्यों का मूल्यांकन कर रहे होंगे, लेकिन हम और हमारे शब्दों को एक ऐसा सूनापन लगता है, जिसे शब्दों से बयां कर पाना सम्भ नही। वाचिक परम्परा के मिश्रा सर पर कुछ भी लिख पाना हमेशा कम बहुत ही कम रहेगा। सहस्र नमन।

कोयला ढुलाई में मानकों और नियमों का उड़ रहा मख़ौल

पाकुड़। एक ही गोत्र के दो जिले पाकुड़ के रास्ते चल पड़े साहेबगंज के विभिन्न चार स्टोन लोडिंग रेलवे साइडिंग पर एक बड़ी अनिमितता प्रकाश में आया है । इन स्थानों से 623 रैक स्टोन बिना माइनिंग चलान के बंगलादेश और बिहार भेजे जाने का चर्चा जोरों पर है। रेलवे के वरियतम जोनल एवं मंडल के अधिकारियों के पत्राचार से ये मामला खुलने और सामने आने की बात कही जा रही है।

इस बाबत जानकारी के अनुसार साहेबगंज डीएमओ ने तकरीबन 25 व्यवसायियों को पत्राचार कर 1 सौ 23 करोड़ का जुर्माना भी किया है, हाँलाकि डीएमओ बिभूति कुमार को कई बार फोन करने के बाद भी उन्होंने फोन रिसीव नहीं किया। ऐसे में क्या ये मामला ढाक के तीन पात ही सावित होगा? ये बड़ा सवाल है, क्योंकि पाकुड़ में ऐसा हो चुका है। सवालों और ख़बर्नबिशों के फोन से नज़र बचाना क्या किसी बड़ी मिलीभगत की ओर इशारा नहीं करता! कम से कम इतिहास तो इसी ओर इशारा करता है।

पुराना है गडबड़ी का इतिहास

रेलवे के भीजिलेंस ने पाकुड़ लोटामारा कोयला लोड रेलवे साइडिंग पर विगत दिनों कोयला लोड मालगाड़ी से ओभर लोड कोयले उतारने का निर्देश दिया। बाद में उसी मालगाड़ी को सूचना के आधार पर साहेबगंज जिले के एक स्टेशन पर रोक भीजिलेंस ने ओभरलोड कोयला खाली करवाया।

हाँलाकि फ़िलवक्त 40 लाख फाइन किया गया है, लेकिन रेलवे भीजिलेंस को और भी रेलवे सेक्शनों में करवाई करनी होगी, क्योंकि पहले निर्देश का पालन न करना एक संगीन अपराध है तथा ओभरलोड से पाकुड़ से पंजाब तक कि रेलवे ट्रेक को संभावित हानि को नकारा नहीं जा सकता। 

ऐसे झारखंड और खासकर पाकुड़ में इसे नकारा नहीं जा सकता कि इस तरह की अनियमितता यहाँ हमेशा होता आया है। उदाहरण के तौर पर राज्य के वन विभाग द्वारा की गई एक करवाई पर नज़र डालिये। पाकुड़ में वन विभाग ने बिना ट्रांजिट परमिट के कोयला की ढुलाई कर रहे मालगाड़ी की 59 बोगियों को जब्त करने का इतिहास रहा है। यह कारवाई जिला वन प्रमंडल पदाधिकारी सौरभ चंद्रा के निर्देश के आलोक में तत्कालीन वन क्षेत्र पदाधिकारी अनिल कुमार सिंह ने की थीं।

कोयले से लदे मालगाड़ी की बोगियों को गार्ड को हैंड ओवर कर दी गई थी। बिना परमिट के मालगाड़ी से कोयला ढुलाई मामले में पश्चिम बंगाल पावर डेवलोपमेन्ट कॉपोर्रेशन के साइड इंचार्ज राम विलास हांसदा को हिरासत में लिया गया था।वन क्षेत्र पदाधिकारी अनिल कुमार सिंह ने बताया था कि बिना ट्रांजिट परमिट के कोयला ढुलाई रेल मार्ग से नही किये जाने को लेकर जिला वन प्रमंडल पदाधिकारी द्वारा पाकुड स्टेशन मास्टर के जरिये हावड़ा डिवीजन के डिविजनल मैनेजर को पत्र लिखा गया था। बावजूद कोयले की ढुलाई कर सरकार के राजस्व को नुकसान पहुंचाया जा रहा था।

राजस्व को पहुँच रहा नुकसान

सरकार के राजस्व को नुकसान पहुंचाने का काम सरकारी अमले और जुमले कर रहे है। जिस विभाग और विभाग के अधिकारियो को शत प्रतिशत राजस्व वसूली में अपनी भूमिका निभानी है वे ही पाकुड़ में कोयला का अवैध परिवहन करवाने में संरक्षक की भूमिका निभा रहे है।

पाकुड़ जिले के अमड़ापाड़ा प्रखंड स्थित पचुवाड़ा नोर्थ कोल ब्लॉक पश्चिम बंगाल पावर डेवलॉपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड को आवंटित किया गया है। आवंटित इस कोयला खदान में कोयला का उत्खनन कर उसका परिवहन बीजीआर माइनिंग एंड इंफ्रा लिमिटेड कर रही है। सरकार ने कोयले को वनोपज मानते हुए इसके परिवहन के लिए ट्रांजिट परमीट की अनिवार्यता सुनिश्चित की है।

सरकार ने प्रति मीट्रिक टन 58 रुपए राजस्व भी कोयले के परिवहन के विरूद्ध निर्धारित किया है। कोयले का परिवहन करने के पहले ट्रांजिट परमीट लिया जाना है, लेकिन पाकुड़ अमड़ापाड़ा लिंक रोड पर पचुवाड़ा नोर्थ कोल ब्लॉक से लोटामारा रेलवे साइडिंग तक कोयले की ढुलाई करने वाली कंपनी सरकार के इस आदेश की धज्जी उड़ा रही है। सरकार के आदेश की अनदेखी को लेकर जिले में वन विभाग ने कोयला से लदे आधा दर्जन से ज्यादा वाहनो को जप्त करने की कार्रवाई भी की बावजुद बिना ट्रांजिट परमीट के आज भी कोयला का परिवहन बदस्तूर जारी है।

कोयले के इस अवैध परिवहन का एक आश्यर्चजनक पहलु यह भी है कि जिस विभाग को भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 42 का अनुपालन कड़ाई से सुनिश्चित कराना है। उस विभाग के अधिकारी और कर्मी ही बगैर ट्रांजिट परमीट के कोयला से लदे वाहनो को सुरक्षा घेरे में ले जा रहे है।

वन विभाग ने झारखंड वनोपज नियमावली 2020 के आलोक में विधि संवत कार्रवाई करने को लेकर पुलिस अधीक्षक को भी पत्राचार किया था, बावजुद जिले की पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी है। सरकार ने बिना ट्रांजिट परमीट के कोयला के परिवहन को न केवल संज्ञेय अपराध बल्कि गैर जमानतीय भी माना है।

ऐसे में सवाल यह खड़ा हो रहा है कि पाकुड़ जिले में किसके संरक्षण और इशारे पर बिना ट्रांजिट परमीट कोयले का परिवहन कर सरकार के राजस्व को क्षति पहुंचाने का काम हो रहा है। इधर पिछले वर्षों में पाकुड़ के विभिन्न थानों में हुए एफआईआर को खंगाले, तो ये साबित हो जाता है, कि कोयला तस्करी जिले में होती है। तस्करों द्वारा प्रस्तुत कागज़ातों को अगर गहराई से देखें और विवेचना करें तो यह भी साबित होता है, कि इसमें भी बड़े पैमाने पर ओल-झोल है।

अब सवाल उठता है, कि ये कोयला सरकार द्वारा दिए गए खनन पट्टों वाले खदानों से तो आते नहीं हैं, क्योंकि उन कम्पनी वालों की अपनी सुरक्षा के बाद पुलिस सुरक्षा भी उन्हें प्राप्त है। ऐसे में ये भी सावित हो जाता है, कि कोयला से भरे पड़े इस इलाके में अवैध खनन कर ये कोयला लाया जाता है। इसमें कई स्तर पर लोगों की मंडली है, जो संगठित तौर पर ईमानदारी से इस बेमानी के कार्य को अंजाम देते हैं। इस कार्य में सबसे पहली मंडली, जंगल में कहाँ खनन करना है, जहाँ कम लागत में आसानी से खनन कर कोयले को गाड़ी में लोड करना, आस पास की आबादी को भी खुश रखते हुए लोड गाड़ी को जंगली खनन स्थान तक ले जाने तथा मुख्य सड़क तक ले आने के लिए एक मंडली काम करती है।

स्वाभाविक रूप से ये पहली मंडली इलाके से पूरा परिचित होती है और बख़ूबी काम करने का तजुर्बा इनके पास होता है।जैसे “ओरमा” नामक जगह पर हो रहे अवैध कोयला खनन को देख कर इन परतों को खोला और समझा जा सकता है।मुख्य सड़क पर आते ही दूसरी मंडली अपना दायित्व सँभालने लगती है।

हँलांकि ये अवैध कोयला विभिन्न रूटों से पश्चिम बंगाल के विभिन्न स्थानों पर जाता है, इसलिए खाँकि, खादी और तलवार से तेज कलमकारों की स्नेहिल छाँव तले कोयला लदी गाड़ियाँ सरपट दौड़ती है। अमड़ापाड़ा, हिरणपुर, कोटालपोखर, गुमानी, महेशपुर, पाकुड़िया, पाकुड़ सहित पश्चिम बंगाल की विभिन्न मंडली एक अरसे से पाकुड़ के वनोपजों और मिनरल्स की तस्करी करते हैं। अचानक प्रशासन के सक्रिय होने पर इन दिनों रात के अंधेरे होने वाले अंधेर पर मानो कुठाराघात हो गया हो।

ये बताना भी जरूरी है, कि जंगलों के जिन इलाकों में ये अवैध खनन होता है, वो इलाके नक्सलियों का भी प्रभाव क्षेत्र रहा है। ऐसे में इन अवैध कारोबार का हिस्सा उनतक भी निश्चित ही पहुँचता हो इससे इनकार नहीं किया जा सकता। इसलिए इस मामले की प्रोफेशनली उच्चस्तरीय जाँच होनी चाहिए। पाकुड़ के इतिहास से क्या साहेबगंज के वर्तमान और फिलवक्त पाकुड़ में चल रहे सबकुछ ठीक है, की छाँव में क्या सबकुछ ठीक भी है? यक्ष प्रश्न है।

सिंचाई योजनाओं पर क्यूँ पानी फेर देता है मॉनसून?

आश्चर्य है पूरे साल सिचाई योजना पर विभाग, ठेकेदार, दलाल सब व्यस्त मस्त रहते हैं, और जब उपयोगिता सावित करने का वक़्त आता है, तो…..

देश के कुछ राज्य अतिवर्षा से जलमग्न हैं, जीवन असामान्य तथा जनजीवन अस्तव्यस्त है, तो वहीं थोड़ा विलम्ब से आये मानसून ने झारखंड को एक तरीके से लुकाछिपी खेलते बादलों से छला है। विलम्ब से ही सही धान की रोपाई तो हो गई, लेकिन तेज धूप और बादलों की ललचाती लुका छिपी ने खेतों को सुखा सा दिया था।

पीले पड़े धान की फसल को दो-तीन दीनी रुक रुक कर हुई बारिश ने थोड़ा जान तो फूँका, लेकिन अबभी कुछ जिलों को छोड़ झारखंड में आवश्यकता से अपेक्षाकृत कम बारिश ने किसानों के चेहरे की रंगत उड़ा रखी है। राजनीति के गलियारों से सूखा घोषणा की मांग उठ रही है, तो कृषिमंत्री बादल पत्रलेख को मीडिया के सामने यह कहना पड़ा कि हम पूरे देश और राज्य के आँकड़े जुटा रहे हैं, अगस्त को वेट एन्ड वाच पर रखने की बात कह पत्रलेख साहब ने कहा कि उचित समय और परिस्थिति पर सूखा तथा राहत की घोषणा की जाएगी। ये तो मानसून और सरकार की बात है।

लेकिन सबसे बड़ी बात ये है, कि पिछले वर्षों में जितने सिंचाई तालाब, कुआं, गढ़िया खुदे वे सब कहाँ हैं। रोपाई से पहले जितनी बारिष हो चुकी थी, कागजों पर बनी सिचाई योजनाओं में जमीनी स्तर पर तो इतना पानी आसानी से रहना चाहिए, फिर फसलों के सूखने का सवाल ही कहाँ है। सबसे पहले पिछले कुछ वर्षों में बने तालाबों सहित गढ़िया और सिचाई कूपों को खोजने की व्यवस्था होनी चाहिए।

जहाँ ये योजनाएं जमीन पर मिल जाय तो उसमें जमा पानी से उसकी उपयोगिता की मान्यता मिल जाएगी जहाँ न मिले तो भगवान मालिक।

पाँच वर्षों की सूचि हर विभाग से निकाल कर बस जमीनी हकीकत जान लें। योजनाएं अपनी उपयोगिता को सार्थक करते हुए उपस्थित हैं तो “यस सर” उपस्थिति दर्ज, नहीं है तो उपस्थिति दर्ज करो भाई। काम कर जाओ बस, कोई कारवाई नहीं, काम कर दो।

गड़े मुर्दे उखाड़ कर गन्ध नहीं फैलाना है, योजनाएं जमीन पर उतर जाय सुगंध स्वयं सुवासित हो जाएगा। उपयोगिता उपयुक्त हो जाएगा, मानसून को अगली बार बिना बरसे धन्यवाद देंगे किसान। किसान कहेंगे भाई मानसून इस बार भले आराम कर लो, पिछली बार जितना अधिक दिया था, हमने जमा कर रखा है।

आश्चर्य है पूरे साल सिचाई योजना पर विभाग, ठेकेदार, दलाल सब व्यस्त मस्त रहते हैं, और जब उपयोगिता सावित करने का वक़्त आता है, तो…..

खैर सभी योजनाएं जमीन पर उतरीं होतीं तो, भूगर्भीय जल के साथ सिंचाई के लिए सिर्फ़ आसमान नहीं ताकना पड़ता, भले मानसून देर सबेर आये हमारी योजनाएं वक़्त बेवक़्त सब सँभाल लेते , लेकिन योजनाएं जमीन पर होना भी तो चाहिए।
फिलवक्त इतना ही🙏

तालाबों शहर से रूठ गया है भूगर्भीय जल, तालाबों की छाती पर इठलाती अट्टालिकाएं गंगाजल के इंतजार में है हजूर

पाकुड़ नगर के नाम के पीछे एक किंवदंती प्रचलित है, कि बंगला के “पुकुर” शब्द के अपभ्रंश से इस नाम की उतपत्ति हुई है। वस्तुतः बंग्ला के “पुकुर” का अर्थ होता है तालाब। तालाबों के इस शहर को हमारी पीढ़ी ने अहसासा है। कहीं भी खड़े खड़े हम विद्यालय जाते तकरीबन दस तालाबों के नाम गिना जाते थे। हर फलांग भर की दूरी पर तालाबों के नाम बदल जाते। कहते हैं नगर के दो किलोमीटर के रेडियश में सौ से ज्यादा तालाबों वाले पकौड़ को लोगों ने अपने बंगाल की संस्कृति से रचे बसे मिज़ाज के कारण पाकुड़ पुकारने लगे, जिसमें पुकुरों (तलाबों) की बहुतायत उपस्थिति ने भी अपना प्रभाव जरूर डाला होगा।

अब बंगाल की संस्कृति गलियों में सिमट गई और सड़कों पर मिलीजुली संस्कृति ने कब्जा जमा लिया और तालाबों पर अट्टालिकाएं इठलाने लगीं और जमीन माफियाओं की तिजोरियां तथा पेट फूलने लगे, उनके चेहरों पर अपनी ताक़त के अभिमान गुर्राने लगें।

तालाब भरने लगे कुछ सरकारी अमलें मिली भगत से सेठ बनते गए, अपनी अगली पीढ़ी के लिए अगाध जमीन जुटाने लगे। लेकिन जो बहुमूल्य चीज़ खोते गए वो था भूगर्भीय जल, जो नीचे और नीचे भागता गया।

आपको आश्चर्य होगा यहाँ कई महल्ले ऐसे हैं, जहाँ की अट्टालिकाएं समृद्धि का एलान करती हैं, तो उनके सबसे ऊपर पड़ी टँकीयाँ और बाथरूम की सूखी टोटियाँ दरिद्रता की दास्तान कहती नज़र आतीं हैं। इतराते बिल्डिंगों में पानी की बिंदी तक की नदारत रहना उनकी वेधब्यता की गवाही कहती है। तालाबों के शहर पाकुड़ में भूगर्भीय जल की कमी अदूरदर्शिता के परिणाम के सिवा क्या है!

कई बार पानी के लिए पानी-पानी हुए शहर के कुछ हिस्से के लिए आंदोलन के राह देखे हैं। लोगों ने आंदोलन का साथ भी दिया। कमोबेश पानी सप्लाई हुआ फिर बंद.. फिर मिला। मतलब पानी पाइपों में आया और धोखे भी खिलाते-पिलाते रहे।राज उच्च विद्यालय सड़क इलाके के लोगों के कूएँ सूख गए, सार्वजनिक बोरिंग, निजी बोरिंग सब के हलक सूख गए। मॉनसून आया, बारिश हुई, लेकिन सब भूगर्भीय जलस्रोतों के पेट पाताल ही छुए रहे।

कारण तालाबों का धीरे धीरे विलुप्ति। राज उच्च विद्यालय सड़क पर कंक्रीट के जंगलों के पीछे छुपे एक तालाब को फिर से भर दिया गया। (तालाब भरने के क्रम की तश्वीर, जो अब पूरी तरह भरा समतल मैदान सा नज़र आता है) तालाबों के शहर पाकुड़ में विलुप्त होते तालाबों पर किसी की जुबान नही खुलती। भूगर्भीय जल का मुख्य स्रोत ही भर दिए जाएं तो…….

संथालपरगना काश्तकारी अधिनियम 1949 की धारा 35 (1) को मुँह चिढ़ाते हुए दबंग सफेदपोशों ने उसी सड़क पर मौजा पाकुड़, खाता संख्या 477, दाग नम्बर 1230 पर स्थित पोखर को भर दिया गया।

बारिश तो हुई पर भरे मिटी-गिट्टी भरे तालाब में पानी नही भरा।
लेकिन आश्चर्य आसपास के सूखे कूएँ वालों ने चुप्पी ओढ़ ली।

ऐसे में आंदोलन और लोगों की दबी पड़ी विरोध क्या भूगर्भीय जलस्रोतों को आबाद कर सकता है? एक ज्वलंत सवाल है, पर जवाब कौन देगा हजूर?

आश्चर्य है, जिनपर तालाब भरने की चर्चा गर्म है, उनका घर भी इसी ड्राय जोन में पड़ता है !😢

उस इलाके के एक सज्जन ने आज मुझसे कहा, पानी की किल्लत के लिए घर बेच कर चला जाऊँगा। उनकी बातों से आहत हो कर स्वयं को रोक नही सका, ख़ुद से सवाल किया-

“क्या किस्मत ने इसलिए चुनवाये थे तिनके,
कि बन जाए नशेमन तो कोई आग लगा दे?”

नए डीसी साहब यहाँ यह चुनौती है, क्योंकि तालाब भरनेवाले लोग राजनीति की सेफ छाँव में हम जैसी आवाजों को मुँह चिढ़ाते हैं। कई चुनोतियाँ यहाँ मुँह बाए खड़ा है। गंगा के पानी को पाइपों में समेटने के इंतजार तो हम पाकुड़वासी एक दशक से ज़्यादा समय से कर रहे हैं, खैर अगर हमारे तालाब आबाद रहते तो गंगा की अविरल धारा की हम यूँ चंचलता नहीं छीनते। लेकिन कंक्रीट के जंगलों के बीच हमारा अंतिम सहारा अब पाइपों से आता गंगाजल ही है, लेकिन ये कब आएगा हजूर ए आली इसपर भी नजरें इनायत रहे।🙏

ओरो का दर्द देखा, तो मैं अपना दर्द भूल गया : अमन

हाँ यही मौन सम्वेदना अमन को सचमुच अमन बनाता है। एक दुर्घटना में बचपन में ही अपने पिता से बिछड़ जानेवाले इस लड़के का मौन दर्द उसे औरों से अलग बनाता है। एक सामान्य सा लड़का ( अमन कुमार ठाकुर )अमन आर्य बहुत ही असामान्य सा काम करता है। जहाँ आज लोग अपने पड़ोसी तक के दर्द और समस्याओं से अनभिज्ञ रहते हैं, वहीं अमन दूर बहुत दूर से किसी बेजुबान की कराह भी सुन लेता है। अगर कहीं कोई बेजुबान कराह रहा होता है, तो अमन के दिल में एक हूक सी उठती है, उसे ऐसा लगता है, जैसे कोई बहुत आर्त आवाज़ से मदद के लिए पुकार रहा हो, और अमन अकेले या अपने साथ पागल दीवानों की टीम के साथ वहाँ पहुँच जाता है।

मैं पागल, दीवाना या असामान्य शब्दों का प्रयोग अमन जैसे खूबसूरत नाम के लिए इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि एक सामान्य आदमी को अगर रास्ते पर चलते कोई जानवर या आवारा घायल बीमार स्ट्रीट डॉग दिख जाय तो मेरे जैसा सामान्य आदमी एक दूरी बनाते हुए नाक पर रुमाल रख निकल जाता है।सम्वेदना का एक भाव तो छोड़ दें , बल्कि कोई अपशब्द बुदबुदाते वहाँ से दूर निकल जाते हैं। लेकिन यहीं उस जानवर की मौन कराह और कष्ट की चीत्कार अमन के कानों में शोर मचा देता है, उसके कोमल हृदय पर मानो कोई छचार सी लगती हो, और फिर अमन उसके इलाज में अपने से स्वयं के पास उपलब्ध दवाइयों और ड्रेसिंग के समान के साथ लग जाता है। जिसके दर्द की तरफ़ हमारी संवेदनहीनता देखने तक से रोकती है, वहाँ अमन उस बेजुबान कुत्ते की इलाज के साथ साथ सुरक्षित स्थान की व्यवस्था करता है। जब तक मरीज ठीक न हो जाय लगातार उसका इलाज और सभी व्यवस्था करता है।

अब तो अमन के असामान्य व्यवहार ने बहुत सारे लोगों में कुछ सम्वेदना कुरेद कर भरी है, लेकिन घायल जानवरों की ख़बर अमन तक पहुँचाने की।

खैर अमन के इस संवेदनशीलता ने उन्हें हम जैसों से अलग एक पहचान दी है, लेकिन हम इसे भी अनदेखा करते हैं, लेकिन अमन कभी घायल जानवरों को अनदेखा नहीं करता, और यही अमन को हमसे अलग करता है, तथा असामान्य बनाता है।

जुबान वालों के आशीर्वाद और दुआओं में भी कभी कभी दिखावा और स्वार्थ होता है, लेकिन बेजुबानों और परित्यक्तों की निर्दोष और निस्वार्थ मौन दुआएं “अमन” जी भरकर कमा रहा है, अगर एक पन्ति में कहे तो एक इंसान अपनी इंसानियत को जी रहा है, जिसे पाकुड़ वाले “अमन” पुकारते हैं। एक बात और कि इन बेजुबानों को वोट देने का भी अधिकार नहीं, इसलिए “अमन” भी बिना वेबजह के आरोपों के झंझट से दूर निश्चिंत होकर अपने सेवा कार्य में व्यस्त है।

सोनार बंगला कहे जाने वाली भूमि, घोटालों का परिचायक बनी

संस्कृति की सममृद्वत्ता पर जब भी बात उठती है, बंगाल की छवि स्मृत हो जाती है। आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक या क्रांतिकारी वीरों की गाथा में न जाने कितने नाम अनायास ही नज़रों के सामने बंगाल से उकर आते हैं। अभी सोशल मीडिया पर एक बात वायरल है, कि अंडमान के सेलुलर जेल में कालापानी की सज़ा में बंद 600 कैदियों में अकेले बंगाल के 400 क्रांतिकारी वीर शामिल थे, लेकिन आज जब हम बंगाल की जेलों में झाँकते हैं तो वर्तमान सरकार के कई कर्ता धर्ता और उनके नजदीकी जेल की रोटी तोड़ते नज़र आते हैं। एक समय नैतिक मूल्यों को सर उठा रखने वाले आदर्शों के बंगाल को ये क्या हो गया कि अनैतिक घोटालों की एक लंबी कड़ी और सूचि शर्मसार करता दिखता है।

कभी सोनार बंगला कहा जाने वाले पश्चिम बंगाल को आख़िर किसकी नज़र लग गई, कि धान के इस कटोरे में स्वर्ण पिलीमा के बीच नगर निगम नियुक्ति घोटाला, शिक्षक भर्ती घोटाला, प्रधानमंत्री आवास घोटाला, वर्तमान में नारदा-शारदा घोटालों की कालिमा के धब्बों की कड़ी को आगे बढ़ाता बरबस दिखता है।

बाम पंथ के लाल झंडे नीचे पोषित 34 वर्षों के सरकार के बाद जब 2011 में ममता बनर्जी की सरकार आई, तो संघर्षो में पली बढ़ी ममता के ममत्व के नीचे माँ माटी और मानुष के नारों से उम्मीदों की एक आस जगी थी, लेकिन आज ममता सरकार के 25 महत्वपूर्ण लोग घोटालों के जाँच दायरे में हैं। सरकार के मंत्री और उनके सहयोगी जेल में या जेल के रास्ते पर नज़र आते हैं।

प्राथमिक शिक्षक भर्ती घोटाले को अगर सरसरी निगाहों से देखें तो 36 हजार शिक्षक कोलकाता उच्च न्यायालय के 12 मई 2023 के आदेश से निलंबित हैं। 36 हजार शिक्षकों की नौकरी पर तलवार लटक रही है। तकरीबन 250 करोड़ रुपये के शिक्षक बनने और बनाने के लिए लेनदेन किये गए। पश्चिम बंगाल वर्तमान सरकार के पूर्व मंत्री पार्थ चटर्जी फिलवक्त जेल में हैं, उनके सहयोगी और एक नजदीकी अर्पिता मुखर्जी के घर से 20 करोड़ जप्ती के बाद जेल गमन कर चुकी हैं तो कई लोग जेल या जेल के रास्ते हैं। पूर्व मंत्री की बेटी सहित कई लोग जो सरकार के लोगों से जुड़े या सत्तारूढ़ पार्टी के नेता या कार्यकर्ता हैं, शिक्षक नियुक्ति घोटाले की सूचि में हैं।

इसी घोटाले की जाँच के क्रम में ईडी को नगर निगम नियुक्ति घोटाले का सूत्र अयान सील की संलिप्तता मिली। उच्च न्यायालय कोलकाता ने सीबीआई को नगर निगम में हुई नियुक्ति घोटालों की जाँच ईडी के जाँच के आधार पर दिया। मतलब साफ़ है कि पश्चिम बंगाल में जहाँ भी हाथ जाँच एजेंसियाँ डालतीं है, पिटारे से एक और घोटाले की फुफकार सुनाई पड़ती है। नगर निगमों में लिपिकों और सफ़ाई कर्मियों की बहाली में ईडी के अनुसार तकरीबन 200 करोड़ के अवैध लेन देन का दावा है।

प्रधानमंत्री आवास योजना में भी घोटाले का पिटारा खुल चुका है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के वरीय अधिकारियों ने मालदा जिले के गाँवों का दौरा कर पाया कि प्रधानमंत्री आवास योजना में बड़े पैमाने पर अनियमितता है। समृद्ध, समर्थ और जिनके पास पहले से अपना मकान है, उन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ दिया गया है। सुविधा शुल्क के एवज में मकानों को दोमहल बनाने तथा पहले से उपलब्ध मकानों को और स्पेसस बनाने के लिए योजना का लाभ रेवड़ियों की तरह बाँटा गया है।

कहते हैं 2028 में हुए शिक्षक नियुक्ति घोटाले में एक हजार 2 व्यक्ति थे, जो न तो परीक्षा में शामिल हुए या फ़िर अपेक्षाकृत कम नम्बर पर उनकी नियुक्ति हो गई और उनसे ज्यादा नम्बर लाने वाले आसमान निहारते रह गए। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि नियुक्तियों के घोटालों में बंगाल ने कैसे रेकॉर्ड तोड़ घोटाले किये हैं।

घोटालों का शिक्षक नियुक्ति, नगर निगम नियुक्ति एवं प्रधानमंत्री आवास योजना घोटाले कोई नई बात बंगाल के लिए नहीं है, बल्कि कोयला, पशु तस्करी, शारदा चिटफंड, रोज बैली और नारदा स्टिंग जैसे घोटालों की कड़ी ने ममता बनर्जी सरकार की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किये हैं।

13 सौ करोड़ के कोयले की काली कमाई में तीन दर्जन से अधिक ऐसे नाम सीबीआई के खाते में दर्ज हुए हैं, जो न सिर्फ नामचीन हस्तियाँ रहीं हैं बल्कि ममता के भतीजे और तृणमूल के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बनर्जी और उनकी पत्नी रुजीरा बनर्जी भी सीबीआई और इडी के पूछताछ के दायरे से गुजरे।

पशु तस्करी मामले में नेता, अफसर, पुलिस, सुरक्षा बल आदि सभी ने मिलकर 20 हजार करोड़ डकार लिए। 40 हजार करोड़ रुपए की कमाई देनेवाले शारदा चिटफंड घोटाले में 25 हजार करोड़ के घोटाले की बात सामने आई। इसमें भी जेनेटरी व्यक्तियों की संलिप्तता सामने आईं।

रोज वैली 464 करोड़ के घोटाले की कहानी कह गया, तो नारदा स्टिंग ऑपरेशन और घोटाले ने ऑन एयर कइयों के शराफ़त के कपड़े उतारे, जो जनता के उद्धार के संकल्प के साथ जनता के द्वारा चुने गए थे।

आश्चर्य ये है कि जिस बंगाल की धरती रवींद्रनाथ टैगोर, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, खुदीराम बोस और नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे सुपुत्रों की जननी रही है, उसी बंगाल की धरती पर दाग लगनेवाले ऐसे कुपुत्रों को कैसे बर्दाश्त कर सकता है। 

वामपंथ के लाल झंडे में 34 वर्षों तक लिपटे बंगाल ने ममता के ममत्व की आँचल की छाँव में समृद्ध, शांत और सुसंस्कृत बंगाल की अपेक्षा की थी, लेकिन “जे जाय लोंका, सेय रावोण होय” (जो लंका जाता है, वही रावण बन जाता है) बंगाल की जनता ये सवाल स्वयं से ही पूछ रही है, ख़ुद को वहाँ की आम जनता ठगा ठगा सा महसूस कर रहे हैं।

भारत का भविष्य अभी और कितने ही “मणिपुर” की राह पर है अग्रसर

मणिपुर जल रहा है, खून बह रहा है, अस्मत तार तार हो रहा है। याद रखें ये सब इंसानी खून और अस्मत है। तार तार अस्मत करते और खून बहाते कौन हैं, ये भी तथाकथित इंसान ही हैं।

हमलावर कुकी समाज के म्यामांर से आये परिवर्तित कैथोलिक ईसाई हैं, जिन्हें यहाँ बसने में अंग्रेजी शासन काल से उत्तर पूर्व के चर्च सीएन ने बसने में मदद की। इनके साथ परिवर्तित मैतेई भी हैं, लेकिन इनके निशाने पर हिन्दू वैष्णव मैतेई हैं। हाँलाकि अब मार खाते खाते ये भी आक्रामक हो गए हैं, लेकिन हमलावरों का उद्देश्य क्या है? पूरे मणिपुर को चर्च के अधीन लाना, जैसे नागालैंड, मिजोरम और मेघालय की मूल संस्कृति को बिलुप्त कर ईसाई धर्म में परिवर्तित कर दिया गया है।

जब अंग्रेज आये वैष्णव सनातनी सीधे साधे बहुमूल्य सम्पदा वाले देश से अलग थलग सरल सम्पदा से समृद्ध लोगों को लूटना अंग्रेजों का उद्देश्य रहा था। आम लोगों के लिए परमिट और स्वयं खुलकर यहाँ रहना, शेष देश से इन्हें काटे रखना और अपना लूट और फुट डालो राज करो और अलगाववाद का बीजारोपण करने के एजेंडे को लागू रखना, जो सौ साल बाद भी जिंदा रहे की मंशा के साथ करना। धर्म बदलकर ईसाई बनाकर उन्हें एस टी का दर्जा और सरकारी सुविधाएं दी। परिवतिर्त समाज को कुकी और वैष्णव लोगों को मैती कहा जाने लगा। कुल मिलाकर वैष्णव समाज के लगातार विरोध करने के कारण इस क्षेत्र के विभाजन में असमर्थ रहे लेकिन भविष्य में विभाजन की बीज बो गए ब्रिटिश शासन। लेकिन धर्म परिवर्तन करा कर हिंदुओं की संख्या परिवतिर्त ईसाइयों कामयाब रहे। 90 प्रतिशत भूभाग पर मणिपुर में परिवर्तित लोगों का कब्जा हो गया और 10 प्रतिशत पर ही मैती यानी वैष्णव रह गए। अफ़ीम की खेती जैसे गलत कारोबार परिवर्तित लोगों से करा कर अंग्रेज मालामाल होते रहे।

आज़ादी के बाद भी मैती को राजा बोध चन्द्र सिंह के कहने के बावजूद 10 प्रतिशत भूभाग में रहने वाले मैती समाज को एस टी का दर्जा नहीं मिल पाया। स्वाभाविक रूप से उन्हें वो सुविधाएं नहीं मिली। असंतोष स्वाभाविक था और है। खैर महाराष्ट्र के नागपुर से नगालैंड की आदिवासी बाहुल्य अधिसूचित क्षेत्र में कालांतर में ईसाई मिशनरियों ने सेवा की आड़ में धर्म परिवर्तन का खेल चलता रहा। आदिवासी समाज अपने भोलेपन के कारण धर्मांतरण के शिकार होते रहे।अभी मणिपुर उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार मैती समाज को इस टी का दर्जा देने की बात कही। मणिपुर के मुख्यमंत्री बिरेन सिंह ने अवैध रूप से आये लोगों और अफ़ीम की खेती पर प्रशासनिक डंडों की बात कही। तस्करों का पूरा गैंग और उनसे लाभान्वित होने वाले राजनैतिक तथा मीडिया के लोगों को मानो साँप सूँघ गया और सपोलों ने मणिपुर को जलाना शुरू कर दिया।

ये जो भी आज हो रहा है अंग्रेजों की दूरदृष्टि वाली नीति और कुकृत्यों का परिणाम है। अंग्रेजों को पता था कि हिन्दू और मुसलमानों को लड़ा कर भारत के टुकड़े किये जा सकते हैं। उन्होनें पाकिस्तान बना कर कर भी दिया, लेकिन इतने पर वे सन्तुष्ट नहीं रहे, उन्हें भारत के टुकड़े टुकड़े करने हैं, और उन्होंने सौ दो सौ साल पहले से इसकी पृष्ठभूमि तैयार कर रखी है, इधर बंगलादेशी घुसपैठ और नागपुर टू नागालैंड के अधिसूचित कॉरिडोर को ईसाई लैंड बनाने पर साज़िश चल रही है। और रह रह कर सरकार के विरुद्ध आग लगाई जाती रही है।

अब मैंने कहा कि संथालपरगना भी इसी राह पर है

पिछले कुछ वर्षों से खुलेआम सुनने को मिला भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह। इसमें कोई नई बात नही है, कि भारत के टुकड़े करने के लिए कई अंतरराष्ट्रीय शक्तियां और साजिशें तकरीबन एक शताब्दी से ज्यादा समय से सक्रिय हैं। अब इसमें ये इंशा अल्लाह शब्द जो जुड़ा है ये एक नई साजिश है, इसे समझना ज्यादा जरूरी है। मुझे लगता है कि पहले भारत के टुकड़े करने की साजिश में इंशा अल्लाह को ही समझने की कोशिश करें।

भारत के टुकड़े करने के नारे के साथ जो इस मज़हबी नारे को जोड़ा गया वो सबसे पहले जे एन यू में हुआ और वहां नारे लगाने वालों में सिर्फ़ उमर खालिद ही नही बल्कि कन्हिया भी था। कन्हिया के साथ कितने सारे ही हिन्दू लड़के लड़कियां भी थीं। क्या किसी हिन्दू घर मे इंशा अल्लाह शब्द का प्रयोग सिखाया जाता है? नही और सिर्फ यही जवाब होगा, नहीं।
भारत के टुकड़े करने के लिए, सबसे ज्यादा जरूरी है, कि पहले यहां की ज़मीन और वातावरण में एक ऐसा ज़हर घोला जाय कि हर दिलों में दूरियां बढ़े और हर नज़र एक दूसरे को शक, वहम और सशंकित आशंका से देखे।

वर्षो से आतंकवाद और घुसपैठ को झेल रहे भारत में इस इंशा अल्लाह जैसे मज़हबी शब्द का भारत के टुकड़े करने जैसे नारों के साथ जोड़ कर आसानी से ऐसा ज़हर घोला जा सकता है और अंतरराष्ट्रीय साज़िश कर्ताओं ने बड़ी सफलता के साथ इसे जे एन यू के आंगन से इसे यहाँ परोस दिया। अब गाहे बगाहे ये दोनों नारे भारत के अलग अलग हिस्से में सुनने को मिल रहे हैं और हर राष्ट्र भक्त इसे एक मज़हबी नारा समझ कर एक मजहब विषेष और उसे मानने वालों को दूसरी नज़र से देख रहे हैं और स्वाभाविक रूप से स्वयं को शक की निगाह से घूरे जाने से एक प्रतिक्रियात्मक मानसिकता पैदा हो रही है। शाजिश करनेवाले भारत के टुकड़े करने के लिए समाज और दिलों टुकड़े करने में सफ़ल हो गए।

सवाल उठता है कि भारत के टुकड़े करने की क्या है अंतर्राष्ट्रीय शाजिश और ये कब से चल रहा है और इसमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किनका हाथ है। आंकड़ो, विज्ञापनों और पीतपत्रकारिता के इस दौर में किसी की नज़र इस और क्यों नही जाती ये समझ से परे है।

अंग्रेजों में कई सदी हम पर साशन किया, बड़े बेआबरू हो कर उन्हें इस सोने की चिड़ियाँ को आज़ाद कर जाना पड़ा, जाते जाते उन्होंने देश के टुकड़े कर दिए। लेकिन उन्होंने इतने पर ही सन्तोष नही रखा। इस देश के कालांतर में और भी टुकड़े होते रहें, इसका बीज वो बो गए और उस बीज को कई किनारों और तरीकों से उसे सींचना भी जारी रखा।

अंग्रेज़ो को पता था कि इस देश मे अब बहुत दिन रहा और राज नही किया जा सकता, इसलिए उन्होंने अपने शोषक मानसिकता के बाद भी, मिशनरियों की आड़ में सेवा कार्य शुरू किया। ये सेवा कार्य महाराष्ट्र के नागपुर से नागालैंड के एक विशेष कॉरिडोर में ही ज्यादा जोर से सिमटा रहा।ऐसा इसलिए कि इस इलाके में भारत की संस्कृति की रीढ़ आदिवासी समुदाय के लोग रहते है। भारतीय संस्कृति के मूल वाहक, भोले भाले, स्वभाव से ईमानदार और भौतिक विकास की अंधी दौड़ में सबसे पीछे रह गए इस आदिवासी समाज को धर्मातरण के द्वारा नागपुर से नागालैंड के इस कॉरिडोर को अलग कर एक अलग लेंड का पहचान दिलाना और फिर एक अलग ईसाई राष्ट्र बनवाना। अंग्रेजो ने अपनी फुट डालो राज करो की नीति को यहाँ से जाने के बाद भी कायम रखा।

सवाल उठता है कि इस अंग्रेजों की नीति के साथ इस इंशा अल्लाह का क्या नाता है! जब मज़हब के नाम पर भारत के टुकड़े हो चुके थे, इतिहास गवाह है कि तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के नेताओं और बंग्ला भाषी मुसलमानों के साथ पश्चिमी पाकिस्तान कैसा दोयम दर्जे का व्यवहार करता था। भारत की शेरनी इंदिरा गांधी ने पूर्वी पाकिस्तान को बंगलादेश के नाम से एक अलग राष्ट्र का अस्तित्व दिलवाया। ये टीस आज भी पाकिस्तान को है।

उधर तालिवान सहित पाकिस्तान के आतंकियों को फलने-फूलने में अमेरिका ने भरपूर सहयोग दिया ये दुनियां से छिपा नही है। इन आतंकी संगठनों ने बंगलादेश में भी अपनी गतिविधि शुरू की जो आज तक कायम है।

इधर भारत की वोटबैंक की राजनीति के कारण बंगलादेश से घुसपैठ शुरू हो गया, जो बदस्तूर जारी है।

अगर बंगलादेश से घुसपैठ के इलाके को देखा जाय तो असम, बंगाल, बिहार और झारखण्ड का इलाका प्रभावित है बंगलादेश के एक बुद्धिजीवी तत्कालीन कुलपति ढाका विस्वविद्यालय डॉ शाहीदुज्जमा ने एक सम्भावना को टटोलते हुए एक नीति बनाई कि भारत का एक बड़ा भूभाग जो बंगलादेश के सीमाई इलाके से लगा हुआ है, उसे घुसपैठ के द्वारा मुसलिम बहुल बना कर संस्कृति और भाषाई आधार पर काट कर बंगलादेश में मिलाने का प्रयास होना चाहिये और ये है भी कि सीमाई क्षेत्र में हमारी संस्कृति और भाषा बंगलादेश से मेल खाती है। हमारे यहाँ की वोटबैंक की राजनीति ने बंगलादेश के इस मंशा को बल दिया और घुसपैठ की इस सीमाई क्षेत्र में क्या स्थिति है, किसी से छिपी नही है।

इस नीति पर भारत को तोड़ने वाले पश्चिमी षडयंत्रकारियो की भी नज़र गई और उन्होंने भी घुसपैठ कराने वाले और भारत को अस्थिर कर तोड़ने की मंशा रखने वाले आतंकियों को और सींचना शुरू किया। क्योंकि इससे पश्चिमी षड्यंत्र नागपूर से नागालैंड तक की अलग एक और ईसाई बहुलता वाले राष्ट्र बनाने की मंशा भी पोषित होगी।

लेकिन पश्चिमी षड्यंत्र पर किसी की नज़र न जाये, इसके लिए उन्होंने इस्लामिक आतंकवाद और अलगाववादी सोच को अपने तरीके से सींचा और जहाँ जैसे जरूरी समझा उसे इस्तमाल किया।

और हमारे यहाँ के तथाकथित बुद्धिजीवी, प्रगतिवादी सोच की ढोंग रचने वाले लालची लोग और स्वयंसेवी संस्थाएं एक आतंकी के लिए नारे लगाते और लगवाते है भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह।

ये नारे लगाने वाले लोग ईश्वरीय सत्ता को नही मानते तो ख़ुद को बामपंथी कहने वालों देश को ये तो बताओ कि इस टुकड़े करनेवाली अपनी मंशा में अल्लाह को लाने का हक किसने तुम्हे दिया और तुम अल्लाह का नाम लेकर यहाँ विद्वेष किस मंशा और किसके इशारे पर कर रहे हो?

हमे सोचना होगा कि भारत के टुकड़े करने की बात सिर्फ़ पाकिस्तान या वहाँ के आतंकी नही सोचते, बल्कि पाश्चात्य सभ्यता और देश भारत के टुकड़े करने का बीज बहुत पहले बो गए हैं और उसे इस्लाम के नाम पर कुछ भटके हुए तथाकथित इस्लामिक आतंकी नेताओं के कंधों पर बंदूक रख कर चला रहे हैं।

इन सारी बातों और अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों को अगर समझने का प्रयास किया जाय, तो देश के अलगाव, विघटनकारी एवं देश के अन्दर गृहयुद्ध की परिस्थियों को जन्मदेनेवाले तत्वों के विषय मे समझा जा सकता है।

पाकुड़ और सन्थाल परगना का क्षेत्र ऐसे ही षड्यंत्री ताकतों का केंद्र बना हुआ है। लेकिन ये घुसपैठ और संथालपरगना में जहाँ आदिवासी संस्कृति के साथ साथ, ईसाई मिशनरियों की मजबूत पकड़ है, वहाँ बंगलादेशी घुसपैठियों ने शादी की आड़ में जमीन हथियाने और धर्मांतरण का रास्ता अख्तियार कर ईसाई समाज से भी पंगा ले लिया है, जिसकी आशा या परिकल्पना किसी को नहीं थी। इसके साथ बहुत कुछ जुड़ा हुआ है, चाहे वह औद्योगिक विस्फोटक, अमोनियम नाइट्रेट, कोयला, पत्थर आदि की कालाबाजारी हो या फिर पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया की सक्रियता और एन आई ए जैसे केंद्रीय एजेंसियों की पाकुड़, सहेबगंज सहित बंगाल, बिहार असम आदि राज्यों में पैनी नज़र।

लेकिन सबसे विडम्बना की बात है कि हमारी राजनीति वोट बैंक की राजनीति में अपने अंग रहे लोगों की सुविधाएं अन्य देशों के नागरिकों को तो देने के लिए तैयार हैं, लेकिन इसकी कीमत हमें अपने ही बीच शंका और आशंका को ढोते हुए भुगतना पड़ रहा है। ये कब समझा जाएगा, कब हम समझ पाएंगे? वह दिन दूर नही जब संथालपरगना, पश्चिम बंगाल, बिहार और असम के कुछ जिले मणिपुर की तरह जल उठे। पूरे देश में पश्चिमी डिप्लोमेटिक आतंकवाद, इस्लामिक आतंक की आड़ में भारत के टुकड़े टुकड़े करने पर तुले हैं और हम हिन्दू मुसलमान खेल रहे हैं।

गृह युद्ध की रणनीति को समझने के लिए एक और बात पर ध्यान देने की जरुरत है, क्या आपने इस बात पर गौर किया है, कि राष्ट्रीय उच्च पथों पर जगह जगह चौराहों पर अव्यस्थित घनी आवादी अवैध निर्माण और अतिक्रमण कर बनाये गये हैं, हालाँकि कुछ जगहों पर सड़क चौड़ीकरण में ये हटाए भी गए हैं। रेलमार्गों पर नज़र डालें तो रेललाइनों के किनारे संकरी गलियों वाली ऐसी ही आवादी पूरे भारत मे नज़र आती है। हवाई अड्डों के आसपास भी तंग झोपडपट्टियाँ दिख जाती रहीं हैं।

ऐसा क्यों? ताकि गृहयुद्ध के दौरान सेना और फोर्स के आवागमन को बाधित किया जा सके। शायद इन्हीं बातों को ध्यान में रख कर केंद्र सरकार ने न सिर्फ़ पर्याप्त हवाई युद्धक समान ख़रीदे और खरीद रहे हैं, बल्कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बने और बंद पड़े हवाई अड्डों को पुनर्जीवित किया, नए भी बनाये, जिससे फोर्स और आवश्यक सामानों को निर्बाध लाना ले जाना सुलभ हो।

यह देश एक रंगीन गुलदस्ता है, किसी भी रंग की अनुपस्थिति गुलदस्ते को फीका करेगा, ये कभी हम, हमारी राजनीति, हमारी पीत पत्रकारिता समझ पाएंगे ऐसा विस्वास है। इंशा अल्लाह, हे राम, प्रभु यीशु अब तो तुम्ही जानो। ऐसे हजारों हजार वर्षों से भारत है और रहेगा।

कृपासिंधु तिवारी बच्चन

            

एक व्यंग का प्रयास जो हक़ीक़त है…

फरवरी-मार्च और अप्रैल का महीना सरकार के विभाग और जिम्मेदारियां इतनी बेरहम हो जाती हैं कि हमें जीने नही देती।

इन्ही दिनों बच्चों की परीक्षाएं, टेक्स भरने के लिए नोटिशें, नगरपालिका, बिजली विभाग, बैंक जैसे सभी बेरहमों के प्रेम पत्र और न जाने क्या क्या !

हे भगवान फिर बच्चों का रिएडमिशन, किताबें ड्रेस, सच में जीने पर भी सोचना पड़ जाता है। लेकिन सरकारें इन विषयों पर क्यों नही सोचती ?

मैं ये नही कहता कि सब माफ़ कर दो लेकिन सोचो यार, किश्तों में मारो, ये हक़ है आपको कि आप चाहे जो करें
मगर क़त्ल भी करें तो जरा प्यार से….

खाश कर हम जैसे लोगों के लिए बड़ी समस्या है सरकार। क्योंकि ठहरे मुफ़सील पत्रकार और स्वाभिमानी बनने के ढोंग में विज्ञापन भी नही उठा पाते, अख़बार और टी. वी. वालों के कोर्ट पेंट, ए सी, बंगला, ठाट बाट सब हमारे खून पर ही चलते हैं। किसी तरह पमरिया, बन्दी चारण के तर्ज़ पर अपना जीवन बसर करते हैं, ताकि हमारे मालिकों को खून मिल सके।
और हाँ मेरा पारिवारिक बैकग्राउंड भी ऐसा है, कि अगर कहीं नॉकरी…. पार्ट या फूल टाइम जॉब भी मांगने जाते हैं, तो कोई विश्वास ही नही करता… हंस कर ठहाकों के साथ प्रेम से चाय वाय पिलाते हुए ये कह कर टाल जाते हैं कि आपको और नोकरी मज़ाक मत कीजिये साहब, देश विदेश ……………..
(आप क्या और किस वर्तमान परिस्थितियों में हैं से किसी का परिचय नही होता, आपके पिता क्या थे, आपके भाई बन्धु, सम्बंधियों पर ही लोग आपका मूल्यांकन करते हैं। ये कोई नहीं समझता कि कोई कौन क्या है, क्या था से सिर्फ़ और सिर्फ़ आपकी एक पहचान भर बनती है, आपके आर्थिक मूल्यांकन से इसका कोई सम्बंध नही होता।)

खैर टाल जाते हैं, अब उनको कैसे समझाये कि हमको तो यही हमी होने ने मारा है।
कभी बेबशी ने मारा…
कभी बेकशी ने मारा…
किस किस का नाम लूँ
मुझे हर किसी में मारा।।

बस सरकार और हालात से विनम्र प्रार्थना है कि हम जैसे बीच में लटके न अमीर न गरीब बन सके लोगों को जरा किश्तों में मारें तो बड़ी कृपा होगी।

मेरे एक पुलिस वाले मित्र की कुछ पन्तियाँ ऐसे में मुझे याद आ जाती है…

“आसमान की ऊँचाइयों की क्या बात करें हम,
पेट की गहराइयों में खो गया है आदमी”

हम जैसे आदमियों के बारे में सरकार कुछ आदमियत दिखाते हुए ईएमआई तय कर दे हमारी समस्याओं का।
क्योंकि थोक में एकमुश्त समस्याएं रस्सी और ज़हर की पुड़िया ढूँढने को बेबस करती है, लेकिन मंगहाई की डायन ऐसी बेदर्दी दिखाती है कि…..
खैर क्या किश्तों में हम नही दुहे या मारे जा सकते ?
नहीं बस यूँ बस पूछ रहा था , ऐसे ज़हर और रस्सी का पैसा बचाकर आज मैंनें एक किश्त चुका दी है जिम्मेदारी का