पाकुड़ बिहार एकत्रित के समय से बंगाल की संस्कृति से प्रभावित रहा है।, उस समय कहने को तो पाकुड़ बिहार में था, लेकिन पाकुड़ की गलियों में बंगाल की संस्कृति की महक जीती थी। संध्या होते ही हर घर से संख और उलू की आवाज के बाद हारमोनियम और तबले की संगत पर रविंद्र संगीत तथा नज़रुल गीति के बोल सुनाई पड़ते थे।
आज भी पाकुड़ की हर गलियों, सड़क चोंक-चौराहों एवं हर ग्रामीण सड़क पर बंगाल की संस्कृति ही जीती नज़र आती है।
यह बात और है, कि उस समय बंगाल की संस्कृति की सौंधी महक के साथ गुदड़ी में ही सही रविंद्र और नज़रुल गीति की महक पाकुड़ को महकाती थी, लेकिन आज बंगाल की बेलगाम कानून व्यवस्था की दुर्गंध तथा बारूद की गंध के साथ , बालू और अवैध कोयले की खनन तथा परिवहन दुर्गंध यहाँ गमकती है।
पाकुड़ की ये बंगाल की गमक और धमक लिए संस्कृति अब जंगल पहाड़ों तक पर अवैध कोयला खनन के रूप में पहुँच गया है।
शायद ही यहाँ की कोई सड़क और गली तक इस तरह के अवैध परिवहन से अछूता रह गया हो। हर सड़क गली यहाँ दिन रात इसकी वानगी बताती कहती नज़र आ जाती है।
और तो और यहाँ की पुलिस और प्रशासन भी इन अवैध करनेवालों के सामने बंगाल की तर्ज़ पर भी बेबस नज़र आती है। थानों के सामने और प्रशासन के नाक के नीचे से अवैध कारोबारी आँखों से काजल तक चुरा ले जाते हैं, और राजनैतिक संरक्षण की छांव और पोषण के साथ स्वार्थजनित उदासीनता पुलिस तथा प्रशासन को बेबस बनाये रखता है।
बम बनाते हुए विष्फोट हो या अवैध खनिजों और लकड़ी सहित वनोत्पादों का अवैध दोहनों के शोर में रविंद्र संगीत और नज़रुल गीति की आत्मा के क्रंदन की सिसकियाँ किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की संवेदना को लहूलुहान होने से नहीं रोक सकता इन दिनों।
” पाकुड़ की सांस्कृतिक गलियाँ इन दिनों बस यही दर्द से कराहती हुई कहती नज़र आतीं है–
कि ” कैसी चली है अबके हवा तेरे शहर में,
बंदे भी बन गए हैं ख़ुदा तेरे शहर में “