सन्थाल जनजाति की संस्कृति प्रकृति के साथ कैसे और किस स्तर तक जुड़ी हुई है, इसकी कल्पना इससे की जा सकती है, कि किसी भी सन्थाल जनजाति के गांव में बिना गए नही समझा जा सकता। उनके घर आँगन सब प्रकृति की कहानी कहता सुनाता सा लगता है। उनकी घरों की दीवारें तक उनकी संस्कृति की कहानी कहतीं हैं।
1990 के दशक में मेरे मित्र पत्रकार डॉ आर के नीरद ने सन्थाल समाज की लुप्त होती जादो पटिया चित्रकला पद्धति को ढूंढ निकाला, और फिर उसपर उन्होंने शोध शुरु किया।
इस शोध के समय डॉ आर के नीरद के साथ मैं भी सन्थाल संस्कृति को समझने और जानने उनके साथ कभी कभी घूमने लगा। कई कार्यशालाओं का भी नीरद जी ने आयोजन किया।
इसी क्रम मैं एक ऐसे दुमका के एक गांव में पहुँचा , जहाँ जादोपटिया के एज्ञाहरवें पायदान से नीरद जी ने मुझे मिलाया। एक संस्मरण आपलोगों से साझा कर रहा हूँ। ——
उस समय ये हिंदुस्तान दैनिक के पटना में छपा था।
एक कलाकार कैसे भिक्षुक बन जाता है, और हम समाज के लोग कैसे उन्हें कलाकार रहते हुए भिक्षुक बना देता है इसकी कहानी है ये।
आर के नीरद जी के साथ कई संथाली गांव घूमते हुए हम एक गाँव के अंतिम छोर पर पहुँचे। जितने भी गाँव से गुजरे हर जगह एक संस्कृति नज़र आई जो हमारी अतीत को छूती हुई नज़र आई।
गाँव का नाम याद नही आ रहा, लेकिन नीरद जी के शोध में ये जरूर होगा, मुझे राघो चित्रकर(चित्रकार) मिला। गाँव के बाहर गोचर जमीन पर उसका घर दिखा। घर क्या उसे घर कह लें, तो शायद यही काफ़ी था। बिना चहार दीवाली के आंगन में एक बिना छत की एक कोठरी भर, छत क्या फूस की झोपड़ी से उसपार तारों की दुनियाँ तक झाँकती एक बाँस की अस्थि पंजर सी, झोपड़ी के छप्पर में कहीं-कहीं फूस इस क़दर दिख भर जाता कि मानो गवाही दे रहा कि कभी पूरा छप्पर छहाया हुआ होगा । हाँ रात में अपनी स्वर्गीय पत्नी की चार निशानी बच्चों के साथ बिलकुल प्रकृति के साथ जुड़ी उनकी आँखें झोपड़ी के अंदर से तारों को मानो रोज़ गिनती थीं। शायद राघो के बच्चों ने गिनती भी यहीं सीखी होगी।
टिमटिमाते तारो को देख उसके बच्चे इतना सब्र भर कर लेते कि घने अंधकार के उसपार रोशनी का एक भंडार भी जरूर होगा। इसी प्रकाश के भंडार की आस में राघो और बच्चों को कब नींद आ जाती और किसी भी मौसम के लिए अनुपयुक्त झोपड़ी में कब सूरज झाँक कर सुबह होने की ख़बर दे डालता पता ही नही चलता।
दिन के निकलते ही वो दीन राघो चित्रकर घर से निकल पड़ता, और आसपास के दो चार गांवों में घूम कर चित्र दिखाते हुए गाकर, एक से डेढ़ पाव चावल माँग लाता, यही राघो की दैनिक आय थी , और क्षीण-हीन सुबह से साम तक घूमने और गाने से हुई कमरतोड़ थकान राघो की बोनस।
इसी तकरीबन डेढ़ पाव चावल से राघो के परिवार का भरणपोषण होता। कमरे के एक कोने में ज़मीन को कोड़कर तीन बड़े पत्थरों को रख कर बना उसका चूल्हा तथा कभी न भर पाने वाला एक मिट्टी का पतीला ही उस परिवार की रसोई थी।
भारतीय लोक कला की एक और विलुप्त होती शैली जादोपटिया की दुमका जिला में मात्र गिनती के बचे कलाकारों में राघो अंतिम एज्ञाहरवें पायदान की तरह उस समय 65 वर्षीय अंतिम टिमटिमाता सितारा था, अब तो राघो ऊपर ईश्वर को अपनी कला दिखा रहा होगा।
भूमिहीन जर्जर शरीर रोज चार-छह गाँव में चित्र दिखा और गाकर भिक्षाटन कर आता था , बस इतना ही भिक्षा उसको मिल पाता कि शायद ही कभी उसके परिवार ने पेट भर खाया हो।
केसी विडंबना थी, कि कभी सन्थाल समाज की समृद्ध संस्कृति की उच्च भावना से जुड़ी ये चित्रकला एक भिक्षा पात्र भर बन कर रह गई थी।
फणीश्वरनाथ रेणु की कथा रसप्रिया के पात्र पचकोड़िया की तरह काँपती राघो की उनलियाँ अब सीधी रेखा नहीं खींच पातीं थीं, आड़ी तिरछी रेखाओं से उकरी चित्रों को दिखा कर ही बेदम सीने से गाते गाते फूलते दम से खाँसते खाँसते कफ़ से बेहाल हो जाता राघो।
राघो के चित्र को विदेशी कद्रदान भी ख़रीद ले गए थे उस समय। समाचार माध्यमों से दूर , तथा सरकारी आकाओं की गाड़ियों की चक्के की धुरी के पहुँच से दूर उस समय कोई सरकारी सहायता भी तो इन तक पहुँचते पहुँचते घिस जाती थीं।
लेकिन दलालों और बिचौलियों की क्रूर लुटेरी पंजों की पहुँच इन तक जरूर थी। विदेशी ग्राहकों से मिलने वाली कीमत भी राघो और राघो जैसे चित्रकर तक पहुँचते सरकारी सुविधाओं की तरह घिस ही जातीं थी।
दीन हीन राघो के जर्जर काँपते शरीर में धसीं आँखे मानो मेरे हर सवाल पर यही कहतीं नज़र आतीं-
“दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ जो अब तक नही कही”
इस लोक कला को विलुप्तता के कगार पर देख आदिवासी लोककला अकादमी की स्थापना करनेवाले अध्यक्ष और शोधकर्ता डॉ आर के नीरद ने उस समय मुझे बताया था, कि राजसैनिक पद्धति का अब तक की ख़ोज में इकलौता कलाकार है राघो। जादोपटिया के उस समय के ढूँढ निकाले गए छः पद्धतियों में ये छठी पद्धति थी, जो महाराष्ट्र के पिथोराशैली से हु ब हु मिलती है।
उस समय भी मेरे बालसखा,पत्रकार और शोधकर्ता डॉ आर के नीरद इस समृद्ध चित्रकला पद्धति की विलुप्तता और सरकारी बेरुख़ी से चिंतित थे, आज भी हैं। आश्चर्य कि सन्थाल संस्कृति से जुड़े इन कलाकारों को जैसे गाँव से बाहर बसना पड़ता था, ठीक उसी तरह आज भी इन कलाकारों को सरकार ने किसी जाति में परिभाषित कर उन्हें जो सुविधाएं विशेष तौर पर मिलनी चाहिए , नही दीं हैं।
राघो और कितने ही इस लोककला के कलाकार चित्र बनाते और कथा सुनाते सदा के लिए ख़ामोश हो गए, लेकिन आदिवासी और सन्थाल समाज की बात करनेवाले लोग, समाजसेवी, स्वयंसेवी संस्थाएं एवं सरकार की खामोशी नही टूटी। क्या एक ऐसी लोककला अब हमें सिर्फ़ कहानियों में ही सुननी पड़ेंगी और शोधपत्रों से ही जाननी पड़ेंगी ?
एक यक्ष प्रश्न है।
( क्या है ये कला और इनके प्रकारों पर आगे भी क्रमबद्ध यहाँ परोसूंगा )