*आत्मघाती पत्रकारिता से बचने का उपाय तत्काल खोजना आवश्यक है*
- पल्लव
जिंदगी बरबाद करने का हक नहीं: पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि का बयान बेहद गंभीर बहस की मांग करता है। तीन दिन पहले अपने चार पन्ने के बयान में दिशा ने पत्रकारिता को जमकर कोसा है। दिशा रवि ने साफ कहा, ‘मीडिया ने मुझे मुजरिम बना दिया। मेरे अधिकारों का हनन हुआ, मेरी तस्वीरें पूरे मीडिया में फैल गईं, मुझे मुजरिम करार दे दिया गया-कोर्ट के द्वारा नहीं, टीआरपी की चाह वाले टीवी स्क्रीन पर। मेरे बारे में काल्पनिक बातें गढ़ी गईं’।
दिशा रवि ने आगे लिखा है, ’विचार नहीं मरते। सच हमेशा बाहर आता है। चाहे वह कितना ही समय ले ले। लेकिन मीडिया को ऐसा नहीं करना चाहिए था। न्याय का प्राकृतिक सिद्धांत भी यही कहता है कि सौ मुजरिम चाहे छूट जाएं, लेकिन किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए।’
दिशा के मामले में जो भी होगा, वह अदालत तय करेगी। पर पत्रकारिता के तमाम अवतारों में उसे अपराधी करार दे दिया गया। मीडिया ट्रायल करके किसी नौजवान की जिंदगी बरबाद करने का किसको हक है? क्या किसी सभ्य लोकतांत्रिक समाज में पत्रकारिता को इतनी गैर जिम्मेदारी की छूट दी जानी चाहिए?
न्यायालय की छवि दरकती है: सप्ताह भर भी नहीं हुआ जब भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए बोबड़े ने भी ऐसी ही एक टिप्पणी की थी। दुष्कर्म के एक मामले की रिपोर्टिंग पर उनकी राय थी कि मीडिया ने गलत रिपोर्टिंग की। एक किशोरी से न्यायालय ने आरोपित को ब्याह रचाने का कोई सुझाव ही नहीं दिया था। पत्रकारों ने उसे गलत अंदाज में परोसा। न्यायालय ने मामले के तथ्यों, दस्तावेजों और सुबूतों के आधार पर पूछा था कि क्या आप पीड़िता से विवाह कर रहे हैं? अदालत में प्रमाण थे कि दोनों पक्ष आपस में शादी की बात कर रहे हैं। माननीय मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि इस तरह की रिपोर्टिंग से न्यायालय और न्यायाधीशों की छवि तथा प्रतिष्ठा पर आंच आती है। जनमानस में इस लोकतांत्रिक शीर्ष संस्था के बारे में भ्रम फलता है। यह उचित नहीं है। यदि सर्वोच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाघीश को यह टिप्पणी करनी पड़ जाए तो लोकतंत्र के इस स्वयंभू चौथे स्तंभ के लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। जानता हूं कि यह तनिक कठोर टिप्पणी है, मगर जिंदगी में एक अवसर आता है जब संयम की परीक्षा में उत्तीर्ण होने की इच्छा भी दम तोड़ देती है।
टूट रहे हैं जम्हूरियत के पाए: मैंने इस स्तंभ में पिछले वर्षों में लगातार इस बात को उठाया है कि यह बात हिन्दुस्तान के मीडिया को समझनी होगी कि गैरजिम्मेदार पत्रकारिता की भी सीमा होती है। आप अनंत काल तक पतन के गड्ढे में नीचे नहीं गिर सकते। जब आप उसकी तलहटी में पहुंचेंगे तो सिवाय दम तोड़ने के कुछ नहीं बचेगा। यदि बिरादरी की ओर से यह तर्क भी दिया जाए कि जब जम्हूरियत के सारे पाए टूट रहे हैं, दरक रहे हैं तो पत्रकारिता के उसूलों की रक्षा कैसे की जा सकती है तो निवेदन है कि यही तो परीक्षा-काल है। गांधी एक विलक्षण और बेजोड़ संपादक थे। उन्हें भी क्रोध आता था। वे विचलित भी होते थे, लेकिन कोई मुसीबत, आफत या संकट उन्हें अपने रास्ते से डिगा नहीं सका। आज बड़े-बड़े अखबारनवीस राह से भटके दिखाई देते हैं। आज नहीं तो कल उन्हें हकीकत का सामना करना ही होगा। लेकिन तब तक वे पेशे का बेड़ा गर्क कर चुके होंगे। इसलिए आत्मघाती पत्रकारिता से बचने का उपाय तत्काल खोजना आवश्यक है। प्रत्यास्थता के चरम बिंदु पर पहुंचने से पहले ही संभल जाएं तो बेहतर है ।