हाँ हाँ उसका नाम संध्या सरकार है। संध्या अपने नाम के अनुरूप संध्या वर्ण की है, और उसकी जिंदगी की कहानी भी कालिमा और अंधकारमय है।
आप जब कभी दिन निकलने के बाद पाकुड़ के राजापाड़ा में स्थित ऐतिहासिक नित्य काली मंदिर में जाएं तो अपने आप में बड़बड़ाती हुई संध्या अपने हाथ में झाड़ू थामे मंदिर प्रांगण की सफाई करती मिल जाएगी। उसका बड़बड़ाना माँ नित्य काली से प्रार्थना भी हो सकती है, लेकिन लोग उसे मानसिक रूप से असंतुलित कहते हैं। लेकिन उसकी सफ़ाई करने की धुन में चलती झाड़ू कहीं असन्तुलित नहीं दिखती। पूरा मंदिर प्रांगण संध्या की चलती झाड़ू से सुबह के उजाले की तरह चमचमाता दिखता है।
माँ काली के मंदिर को हर सुबह चमक परोसने वाली बेचारी संध्या के माता पिता नहीं हैं। भाई बहन , परिवार नाम का कोई गम और खुशी बाँटने वाला भी संध्या के जीवन में नहीं है। हाँलाकि कुछ पूछने पर बहुत कुछ तारतम्यता में बता भी नहीं सकती बेचारी। ऐसा लगता है मानो उसकी आँखें कुछ पूछने पर कह रही हो—-
” दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ जो अब तक नहीं कही ”
महाशिवरात्रि और महिला दिवस पर भी इसकी और किसी की नज़र नहीं गई। ईश्वर तो नाराज़ ही होंगे शायद , लेकिन ईश्वर ने अपने आँगन में इसे जगह दी है।
ईश्वर ने इस नित्यकाली मंदिर के पुजारी को इसके प्रति दया का ऐसा भाव दिया है कि प्रतिदिन मंदिर में झाड़ू लगाने के एवज़ में उसे तीस रुपये और अपने घर में दोनों वक़्त का भोजन पंडित भरत भूषण मिश्र जी देते हैं।
किसी बड़े दिल के व्यक्ति ने उसे अपने खाली घर में रहने को जगह फ़िल्वक दे रखा है , लेकिन ये उसे कब तक उपलब्ध है , या तो भगवान जाने या फिर वक़्त।
आज महिला दिवस पर पंडित जी ने उसकी ब्यथा और अनिश्चितता भरी जिंदगी पर मुझसे कहा कि अगर सरकार संध्या सरकार को रहने के लिए जमीन और घर उपलब्ध करा दे तो शायद उसकी अनिश्चित जिंदगी को एक निश्चितता मिल जाय। सम्भव है कि इससे उसे जीने का ऐसा बहाना मिल जाय , कोई उसी के तरह बेघर उसका हाथ थाम कर साथ जीने मरने की कसम खा ले।
बचपन में मुझसे पढ़ने वाले पंडित जी ने मुझसे उसके लिए कुछ ऐसा करने को कहा कि उसकी जिंदगी संवर जाये।
मैं अपनी नॉकरी गवाँ चुका पत्रकार ठहरा। मैंनें पंडित जी से इसकी कहानी को अपने पेज़ पर शब्द देने का वादा किया।
जो भी हो , लेकिन संध्या जैसी लड़कियों की कहानी को अगर महिला दिवस के दिन भी जगह नहीं मिलती, तो दुखद है।
आज की पत्रकारिता को जब अर्श और फर्श में अंतर नहीं दिखता तो , पत्रकारिता से आशा रखना भी बेमानी होगी।
खैर जिस आँगन में संध्या सफाई करती है , वो आँगन करुणामयी माँ नित्यकाली का है। एक न एक दिन संध्या के जीवन में भी सवेरा जरूर आएगा , भोर होगी।
महिला दिवस पर भी छूट गई संध्या के दर्द की कहानी , क्या उसके जीवन में कभी सवेरा आएगा ?
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दया करो माँ
संध्या के जीवन में उजाला लाओ 🙏