अपनी संस्कृति से पहले पहचाने जाने वाले लोग पाकुड़ शहर में अब सड़क पार करना टफ टास्क है, जबकि यादों के झरोखे के उसपार झाँकने पर ये नज़ारा इतना मुश्किल नहीं था। लोग और गाड़ियाँ सब सलीक़े से चलते थे।
अब आवारा लहराते मोटरसाइकिल और रफ़्तार को चुनौती देती गाड़ियाँ किसी अनहोनी को हमेशा मौन निमंत्रण दे रहा है। खेती खलिहानी के लिए बने ट्रैक्टरों की तो अब पूछिये ही मत। बीते कुछ वर्षों के रिकॉर्ड में झाँकिये तो दुर्घटनाओं की फेहरिस्त मिलेगी। जबकि 2-3 दशक पहले कोई दुर्घटना महीनों चर्चा का विषय बनता था।
पाकुड़ की सड़कों पर आया ये बदलाव गलियों मुहल्लों में भी एक उच्चस्तरीय संस्कृति के बदलाव की कहानी कहता नज़र आता है। जात पात और सम्प्रदा य से इतर पूरा पाकुड़ एक बड़ा सा आँगन और एक परिवार सा लगता था। उनदिनों स्कूल जाने के दौरान महल्ले के किसी भी आँगन में रसोई बन गई होती तो पूरे महल्ले का कोई बच्चा बिना पेटभर खाए विद्यालय नहीं जाता था।
मेरे बचपन की गलियों में ये यादें एकदम ताज़ी हो उठतीं हैं, जब विद्यालय जाने के समय गर्म चावल, आलू का चोखा और दाल के साथ एक चम्मच देशी घी सामने परोसा हुआ मिल जाता था। अपने घर में उस समय चूल्हा जला हो या नहीं, लेकिन पता नहीं कौन सा सूचनातंत्र काम करता था, कि पड़ोस के आँगन से स्कूली बच्चों के लिए परोसी हुई थाली हाजिरी बजा जाती। हम भी ऐसी थालियां पड़ोस के आँगन में जाते अक्सर देखते थे।
किसी के यहाँ वक़्त बेवक़्त कोई मेहमान आ जाये तो दाल चावल, रोटी के मूल वेतन के साथ बोनस के रूप में मुहल्ले भर की रसोइयों की सौंधी सुगंध लिए सब्जियों की गिनती मुश्किल हो जातीं थीं।
वो कहते हैं न, कि पहले पड़ोसी परिवार सा महसूस होता था, आज तो परिवार कब पड़ोसी बन जाय कहना मुश्किल है। मैंनें दोनों चीज़ें अहसासा है।
एक क़स्बाई नगर पाकुड़ बंगाल की संस्कृति को जीता हुआ अविभाजित बिहार और अब झारखंड के नाम को जीता है। इस शहर की संस्कृति नज़रुल और रविंद्र संगीत को गुनगुनाता अपनी समृद्ध संस्कृति को जीता था। पूरा नगर परिवार सा था, लेकिन आज के पाकुड़ में हम अपने ही शहर में बेगाने से नज़र आते हैं।
अभी भी यहाँ की पीढ़ियाँ जो उस वक़्त को किसी न किसी तरह छू कर गुजरा है, अपनेपन के उसी महक को अहसासता है, लेकिन भागते दौड़ते शहर की सड़कों पर भीड़ में वो अपनापन अब कहीं खो सा गया है।