हिन्दी पत्रकारिता दिवस की सभी पत्रकार मित्रों को बधाई।
हिन्दी पत्रकारिता की श्याही ने कई इबारतें लिखी है, इसकी श्याही कभी न सूखे इसका हम सभी मित्र संकल्प लें।
जय पत्रकारिता
हिन्दी पत्रकारिता जिन्दावाद
गमला और खुला आँगन
मैं और तुम,
एक ही आँगन में,
उपजे दो पौधे,
बिलकुल अगल बगल,
समय के साथ बढ़े,
आँधियों में भी ,
झोकों ने हमेशा,
हमें गले मिलाकर,
सहारा बनाया एक दूसरे का,
मैं खुले आँगन में झेलता रहा,
कड़ी धूप-बारिश और हवा के तेज थपेड़े,
समय ने उस आँगन से,
तुम्हें उठाकर सजी – सुंदर,
कंक्रीट की बालकोनी के गमले में सजा दिया,
छोटे से गमले में,
रसायनिक खादों में ख़ूब फले तुम,
छाँव तो नही दे पाए,
पर फलों से ख़ूब नवाज़े तुमने,
मेरी आँगन में मैंनें फल तो कम दिए,
या यूँ कहो दिए ही नही,
लेकिन आँगन के खुले आसमान,
तथा उसकी अंतहीन गहराई लिए जमीन में,
मेरी जड़ें गहरे उतरी,
टहनियों ने खुलकर हाथ फैलाये,
बालकोनी से फल तोड़ लोग,
मेरी फैली शाखों की छाँव में,
सकून से फल खाएं सबने,
बस फल तोड़ने में लोग ,
तुम्हारे गमले में जड़ें हिला आये,
और मेरी छाँव में सकूँ से बैठे,
गद्दारों ने खोद दिए जड़ मेरे।
हम दोनों के जगह बदले,
वातावरण बदला,
तुम्हारे चारो तरफ़ चमक-धमक
मेरे पास वही पुरानी और
पुरानी कहानी,
न अब तुम,
न मैं अब
कुछ भी समझ सकते
एक दूसरे को,
ऐसे भी तुम्हें गैरों से कब फ़ुर्सत
मैं अपने गम से कब ख़ाली ?
तेरी महक़ में अब क्यूँ बू निकले !
तेरे आने की,
किसी भी रूप में,
जब ख़बर निकले ,
न तेरी महक़,
और न ही तुम निकले ,
हर बार तेरे चारों ओर ,
वही सड़ांध की बू निकले ,
हाय तेरी महक़ को,
तरस गया मैं ,
मगर क्या करूँ ?
न तुम निकले ,
न तेरी महक़ निकले ,
नहीं नहीं अब मुझे तेरी ,
ज़ुस्तज़ु भी नही ,
मैंनें क्या समझ रखा था ,
और तुम क्या निकले !
छोड़ो शिकायतें नहीं तुमसे,
तुम जो भी निकले ,
बहुत ख़ूब निकले ,
एक हम थे कि ,
बड़े नादां निकले ,
तेरे वादे पे जिये हम ,
क्या कहें कि हम क्या क्या निकले।