Monday, December 30, 2024
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जय जय पाकुड़ का अवैध खनन, कोई अजय बोल दे, तो गलत ही होगा। सचमुच अजेय ही

न जाने कितनी ज़िंदगियाँ लील चुकी है,पाकुड़ के पत्थर खदान !
ऊपर के चित्रों में जो सुरसा की तरह मुँह बाए धरती के सीने पर ये खाइयों जैसे सैकड़ों फूट गहरे खदान दिख रहे हैं , ये एशिया प्रसिद्ध काले पत्थरों को उगलने वाले खदान हैं।
इन खदानों ने कितने व्यवसायियों और उन्हें सुविधाएं उपलब्ध कराने वालों सरकारी और गैर सरकारी अमलों को कड़ोरों रुपये उगल कर दिए हैं , इसकी कल्पना करना भी असम्भव है।
अगर आप इन खदानों के मालिकों और इनसे जुड़े आज तक पदस्थापित सरकारी अमलों की सम्पत्तियों की बृहत उच्च स्तरीय जाँच या अवलोकन करें , तो देश विदेश में इसके तार जुड़े मिलेंगे।
सैकड़ों उदाहरण है ,  पर ये खदान कितनी ज़िंदगियाँ लील चुकी हैं, अब तक ये अंदाज़ा लगाना तक मुश्किल है। पालतू पशुओं की तो छोड़ दें , इंसानों को भी निगलने में इन पाताल छूती गड्ढों को कोई परहेज़ नही है।
 दुखद और चिंता की बात ये है, कि इसी तरह के एक खदान ने एक मालिक तक को ही लीलने से नही छोड़ा। कुछ दिनों पहले प्रदीप भगत नाम के एक पत्थर व्यवसायी अपने ही खदान में मोटरसाइकिल से फिसल कर गिर गये, और दुखद अंत को प्राप्त हो गये । कितने ही लोग असुरक्षित और खनन नियमों को अँगूठा दिखनेवाले खदानों में अपनी जान गवाँ चुके हैं, लेकिन हर जान की एक क़ीमत लग जाता है यहाँ।
ऊपर खदानों को देखिए न , माइंस और मिनरल एक्ट, तथा खान सुरक्षा के तमाम नियमों को ताख़ पर रख कर खुले खदानों की खुदाई से कितने लोगों को ख़ुदा की ख़ुदाई बचा सकती है, एक ग़लती हुई नही कि ख़ुदा के प्यारे होने से कोई नही बचा सकता।
नियमों के अनुसार मोटे तौर पर हर पाँच फुट की खुदाई पर पाँच फीट चौड़ा एक बैंच होना है, और ऐसे ही बैंचों की क्रमबद्धता के साथ सीढ़ी नुमा खनन का नियम है। खदान के किनारे बृक्षारोपण और सुरक्षित घेराबंदी आवश्यक है, सड़क से नियत दूरी पर ही खनन करने का नियम है।
लेकिन चित्रों में देखिए कहीं बेंच नही दिखता, एकदम सैकड़ों फीट सीधी खड़ाई लिए खुदाई है। यहाँ ऊपर जिन खदानों का चित्र है, वो बिलकुल मुख्य सड़क के किनारे है। कहाँ का है, मैं जगह का नाम नही बता रहा, क्योंकि वसूली चालू हो जाएगी।

बस हाथ की लेखनी ही काफ़ी है नन्दलाल परशुराम सर के लिए

*हिन्दुस्तान के संपादक ओमप्रकाश अश्क जी गोड्डा आए और नए व्यूरो चीफ अनिमेष भाई को बनाए। वे बोले कि केवल नंदलाल बाबू की खबर हाथ से* *लिखी होगी बाकी को टाइप कर खबर भेजनी* *है*
*पल्लव, गोड्डा*

नंदलाल परशुरामका जी के साथ सौतेला व्यवहार की बात दिल्ली हिन्दुस्तान के संपादक के पास भी पहुंच गया। वहां से आदेश आया कि गोड्डा के पुराने व्यूरो को हटाकर नया व्यूरोचीफ बनाया जाय। इसी क्रम में हिन्दुस्तान धनबाद के तत्कालीन संपादक ओमप्रकाश अश्क साहब गोड्डा आये और *अनिमेष भाई को नया व्यूरो चीफ बनाए। गोड्डा आने* *पर अश्क साहब नए व्यूरो चीफ अनिमेष जी से बोले कि नंदलाल बाबू के हाथ से लिखी खबर को केवल टाइप करा देना* है। बाकी संवाददाताओं को अपने से टाइप कर खबर भेजनी है। इस तरह इस वार की लड़ाई मेें भी अपने को इश्मार खान समझने वाले पत्रकार भाई को मुंह खानी पड़ी।
*नया व्यूरो चीफ अनिमेष जी छोटा भाई ऐसे सब दिन रहा है। वे* *बोलते भैया आपने चाणक्य जैसा रॉल अदा कर मुझे चंद्रगुप्त मौर्य बना दिया है। आपको मेरी ताज की हिफाजत सब दिन करनी है। मैंने अनिमेष भाई को* उसी समय वचन दिया कि जो सही है, उसके साथ पल्लव हर समय खड़ा ही नहीं, किसी भी हद तक लड़ने के लिए भी तैयार है। आप शान से हिन्दुस्तान में लिखिएगा। मेरी अगर कहीं जरूरत होगी तो एक बड़े भाई के रूप में हमेशा आपके आगे खड़ा रहूंगा।
जब अनिमेष जी व्यूरो चीफ हिन्दुस्तान का बन गए तो नंदलाल बाबू को काफी इज्जत करने लगे। वे सदा उसे चाचा कहकर ही संबोधित करते। वे खुशी मन से पत्रकारिता करने लगे। नंदलाल बाबू बोलते कि जब भी पत्रकारिता में मुझे दिक्कत हुई तो आप संकटमोचन बनकर आगे आए पल्लव जी। आप पहले तो किसी को छेड़ते नहीं, लेकिन जो आपको बेवजह छेड़ा, उसको आपने कभी छोड़ा भी नहीं। *नंदलाल बाबू मुझे सब दिन हिम्मती और जीवट इंसान कहते थे। सच भी यही है कि मेरा एक* *हाथ अगर इंद्रजीत तिवारी थे तो दूसरा हाथ नंदलाल बाबू थे। नंदलाल बाबू के नहीं रहने से मेरा एक हाथ जरूर टूट* *गया। पर मैं आपको भरोसा दिलाता हूं दादा, कि आपकी अदृश्य प्रेरणा शक्ति मुझे कभी कमजोर होने नहीं देगी।*
*नोट – आज नंदलाल बाबू का श्राद्ध कर्म संपन्न हाे रहा है। वैसे तो इनपर लिखने के लिए मेरे पास कई महीनों का खजाना है। पर कल का आलेख नंदलाल बाबू पर अंतिम होगा। विनम्र श्रद्धांजलि दादा।*

जादोपटिया : कलाकार की कृतियाँ , जो बन गईं भिक्षापात्र

सन्थाल जनजाति की संस्कृति प्रकृति के साथ कैसे और किस स्तर तक जुड़ी हुई है, इसकी कल्पना इससे की जा सकती है, कि किसी भी सन्थाल जनजाति के गांव में बिना गए नही समझा जा सकता। उनके घर आँगन सब प्रकृति की कहानी कहता सुनाता सा लगता है। उनकी घरों की दीवारें तक उनकी संस्कृति की कहानी कहतीं हैं।
1990 के दशक में मेरे मित्र पत्रकार डॉ आर के नीरद ने सन्थाल समाज की लुप्त होती जादो पटिया चित्रकला पद्धति को ढूंढ निकाला, और फिर उसपर उन्होंने शोध शुरु किया।
इस शोध के समय डॉ आर के नीरद के साथ मैं भी सन्थाल संस्कृति को समझने और जानने उनके साथ कभी कभी घूमने लगा। कई कार्यशालाओं का भी नीरद जी ने आयोजन किया।
इसी क्रम मैं एक ऐसे दुमका के एक गांव में पहुँचा , जहाँ जादोपटिया के एज्ञाहरवें पायदान से नीरद जी ने मुझे मिलाया। एक संस्मरण आपलोगों से साझा कर रहा हूँ। ——
उस समय ये हिंदुस्तान दैनिक के पटना में छपा था।

एक कलाकार कैसे भिक्षुक बन जाता है, और हम समाज के लोग कैसे उन्हें कलाकार रहते हुए भिक्षुक बना देता है इसकी कहानी है ये।
आर के नीरद जी के साथ कई संथाली गांव घूमते हुए हम एक गाँव के अंतिम छोर पर पहुँचे। जितने भी गाँव से गुजरे हर जगह एक संस्कृति नज़र आई जो हमारी अतीत को छूती हुई नज़र आई।
गाँव का नाम याद नही आ रहा, लेकिन नीरद जी के शोध में ये जरूर होगा, मुझे राघो चित्रकर(चित्रकार) मिला। गाँव के बाहर गोचर जमीन पर उसका घर दिखा। घर क्या उसे घर कह लें, तो शायद यही काफ़ी था। बिना चहार दीवाली के आंगन में एक बिना छत की एक कोठरी भर, छत क्या फूस की झोपड़ी से उसपार तारों की दुनियाँ तक झाँकती एक बाँस की अस्थि पंजर सी, झोपड़ी के छप्पर में कहीं-कहीं फूस इस क़दर दिख भर जाता कि मानो गवाही दे रहा कि कभी पूरा छप्पर छहाया हुआ होगा । हाँ रात में अपनी स्वर्गीय पत्नी की चार निशानी बच्चों के साथ बिलकुल प्रकृति के साथ जुड़ी उनकी आँखें झोपड़ी के अंदर से तारों को मानो रोज़ गिनती थीं। शायद राघो के बच्चों ने गिनती भी यहीं सीखी होगी।
टिमटिमाते तारो को देख उसके बच्चे इतना सब्र भर कर लेते कि घने अंधकार के उसपार रोशनी का एक भंडार भी जरूर होगा। इसी प्रकाश के भंडार की आस में राघो और बच्चों को कब नींद आ जाती और किसी भी मौसम के लिए अनुपयुक्त झोपड़ी में कब सूरज झाँक कर सुबह होने की ख़बर दे डालता पता ही नही चलता।
दिन के निकलते ही वो दीन राघो चित्रकर घर से निकल पड़ता, और आसपास के दो चार गांवों में घूम कर चित्र दिखाते हुए गाकर, एक से डेढ़ पाव चावल माँग लाता, यही राघो की दैनिक आय थी , और क्षीण-हीन सुबह से साम तक घूमने और गाने से हुई कमरतोड़ थकान राघो की बोनस।

इसी तकरीबन डेढ़ पाव चावल से राघो के परिवार का भरणपोषण होता। कमरे के एक कोने में ज़मीन को कोड़कर तीन बड़े पत्थरों को रख कर बना उसका चूल्हा तथा कभी न भर पाने वाला एक मिट्टी का पतीला ही उस परिवार की रसोई थी।
भारतीय लोक कला की एक और विलुप्त होती शैली जादोपटिया की दुमका जिला में मात्र गिनती के बचे कलाकारों में राघो अंतिम एज्ञाहरवें पायदान की तरह उस समय 65 वर्षीय अंतिम टिमटिमाता सितारा था, अब तो राघो ऊपर ईश्वर को अपनी कला दिखा रहा होगा।
भूमिहीन जर्जर शरीर रोज चार-छह गाँव में चित्र दिखा और गाकर भिक्षाटन कर आता था , बस इतना ही भिक्षा उसको मिल पाता कि शायद ही कभी उसके परिवार ने पेट भर खाया हो।
केसी विडंबना थी, कि कभी सन्थाल समाज की समृद्ध संस्कृति की उच्च भावना से जुड़ी ये चित्रकला एक भिक्षा पात्र भर बन कर रह गई थी।
फणीश्वरनाथ रेणु की कथा रसप्रिया के पात्र पचकोड़िया की तरह काँपती राघो की उनलियाँ अब सीधी रेखा नहीं खींच पातीं थीं, आड़ी तिरछी रेखाओं से उकरी चित्रों को दिखा कर ही बेदम सीने से गाते गाते फूलते दम से खाँसते खाँसते कफ़ से बेहाल हो जाता राघो।
राघो के चित्र को विदेशी कद्रदान भी ख़रीद ले गए थे उस समय। समाचार माध्यमों से दूर , तथा सरकारी आकाओं की गाड़ियों की चक्के की धुरी के पहुँच से दूर उस समय कोई सरकारी सहायता भी तो इन तक पहुँचते पहुँचते घिस जाती थीं।
लेकिन दलालों और बिचौलियों की क्रूर लुटेरी पंजों की पहुँच इन तक जरूर थी। विदेशी ग्राहकों से मिलने वाली कीमत भी राघो और राघो जैसे चित्रकर तक पहुँचते सरकारी सुविधाओं की तरह घिस ही जातीं थी।
दीन हीन राघो के जर्जर काँपते शरीर में धसीं आँखे मानो मेरे हर सवाल पर यही कहतीं नज़र आतीं-
“दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ जो अब तक नही कही”
इस लोक कला को विलुप्तता के कगार पर देख आदिवासी लोककला अकादमी की स्थापना करनेवाले अध्यक्ष और शोधकर्ता डॉ आर के नीरद ने उस समय मुझे बताया था, कि राजसैनिक पद्धति का अब तक की ख़ोज में इकलौता कलाकार है राघो। जादोपटिया के उस समय के ढूँढ निकाले गए छः पद्धतियों में ये छठी पद्धति थी, जो महाराष्ट्र के पिथोराशैली से हु ब हु मिलती है।
उस समय भी मेरे बालसखा,पत्रकार और शोधकर्ता डॉ आर के नीरद इस समृद्ध चित्रकला पद्धति की विलुप्तता और सरकारी बेरुख़ी से चिंतित थे, आज भी हैं। आश्चर्य कि सन्थाल संस्कृति से जुड़े इन कलाकारों को जैसे गाँव से बाहर बसना पड़ता था, ठीक उसी तरह आज भी इन कलाकारों को सरकार ने किसी जाति में परिभाषित कर उन्हें जो सुविधाएं विशेष तौर पर मिलनी चाहिए , नही दीं हैं।
राघो और कितने ही इस लोककला के कलाकार चित्र बनाते और कथा सुनाते सदा के लिए ख़ामोश हो गए, लेकिन आदिवासी और सन्थाल समाज की बात करनेवाले लोग, समाजसेवी, स्वयंसेवी संस्थाएं एवं सरकार की खामोशी नही टूटी। क्या एक ऐसी लोककला अब हमें सिर्फ़ कहानियों में ही सुननी पड़ेंगी और शोधपत्रों से ही जाननी पड़ेंगी ?
एक यक्ष प्रश्न है।
( क्या है ये कला और इनके प्रकारों पर आगे भी क्रमबद्ध यहाँ परोसूंगा )

पत्रकार के साथ एक संत भी थे नन्दलाल परशुराम

नंदलाल परशुरामका पत्रकार के साथ एक संत भी थे
संतमत आश्रम कुप्पाघाट के संतसेवी जी महाराज भी इनके कमरे में पधारे थे
पल्लव, गोड्डा

नंदलाल परशुरामका पत्रकार के साथ संत भी थे। वे महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के शिष्य भी थे। शान्ति संदेश जैसी पत्रिकाओं में भी नंदलाल बाबू लिखते रहे। महर्षि मेंही के शिष्य संतसेवी जी महाराज उनके बैठक खाना में कई वार आए। वहीं बैठक खाना जिसमें गद्दा लगा रहता था और नंदलाल बाबू उसी पर बैठकर समाचार लिखते रहते थे। संत सेवी जी महाराज को नंदलाल बाबू साहब कहा करते थे। एक वार संतसेवी जी महाराज उनके बैठक खाना में आने वाले थे। वे बोले पल्लव जी, कल साहब अपनी बैठक खाने में पधारने वाले हैं। आप जरूर आइएगा। इनके कहने पर मैं वहां पर गया और नंदलाल बाबू ने संतसेवी जी महाराज से परिचय भी कराये। बोले यह युवा लड़का पत्रकार है और बेवाक लिखता है साहब। उन्होंने मुझे भी आशीर्वाद दिया और संतसेवी जी बोले कि उसके हक के लिए जरूर लिखते रखना जिसकी बात कोई नहीं सुन रहा हो। तुम्हारी कलम से अगर किसी एक बेवश, लाचार, निरीह का भी उपकार हो रहा हो तो लाख विरोध के बाद भी तुम डरना नहीं, लिखते रहना। ऐसे लोगों काे भगवान खूद मदद करते हैं। ऐसे कार्य करोगे तो तुम्हें खूद अनुभव होगा कि मेरी मदद कोई परोक्ष रूप से कर रहा है। भले ही वह तुम्हें न दिखे। नंदलाल बाबू को भी आशीर्वाद दिए । वे संतसेवी जी महाराज को कभी साहब कहते तो कभी सरकार कह कर संबोधित करते। यह तस्वीर तभी कि है जब संतसेवी जी महाराज नंदलाल बाबू के बैठक खाना से निकल रहे थे। साहित्य पर भी नंदलाल बाबू की गजब की पकड़ थी। गोड्डा के साहित्य साधक पर भी कई आलेख किस्तों में मैंने प्रभात खबर में लिखी, जब इस अखबार का मैं हीरो था।
संतसेवी जी की बात और नंदलाल बाबू की हिदायत का परिणाम रहा कि जब मेरी खबर छपी तो स्कूल से अपनी बीमार मां के लिए अंडा छिपाकर लाने वाले बच्चे की मां की जिंदगी बच गई। वहीं थैलेसीमिया से पीड़ित गरीब बच्चे जिसको खून दिलाने के लिए कोरोना काल मेे उसका पिता साईकिल चलाकर 300 से अधिक किलोमीटर की दूरी तय करता है। मेरी खबर छपने और बंगलौर में पढ़े जाने के बाद उस बच्चे को बंगलौर की एक संस्था ने एक बड़े अस्पताल में करीब 37 लाख की सहायता से बोन मेरो ट्रांसप्लांट करा दिया। सचमुच यह दैविक प्रेरणा का ही परिणाम है। नंदलाल बाबू भले हमारे बीच नहीं रहे, पर उनकी प्रेरणा हमारी कदम कभी भी डगमगाने नहीं दे। यही प्रार्थना भगवान से करता हूं।

पत्रकारों की पूंजी होती है स्वाभिमान : स्व.परशुराम

डीसी को भी गलती माननी पड़ी थी नंदलाल परशुरामका से
पल्लव, गोड्डा
दैनिक प्रदीप के बाद मौत आने के दिन तक दैनिक हिन्दुस्तान के मान्यता प्राप्त पत्रकार रहे नंदलाल परशुरामका बाहर से जरूर सरल थे, पर जब कलम और स्वाभिमान की बात होती थी तो वे किसी भी हद तक जाने को तैयार हो जाते थे। बात 1995 की है। एमपी चुनाव में किसी छपी समाचार को लेकर डीसी नंदलाल बाबू से नाराज थे। गोड्डा गांधी मैदान स्थित टाउन हॉल के पास एमपी चुनाव की मतगणना हो रही थी। प्रशासन की ओर से मतगणना स्थल तक जाने के लिए पास की व्यवस्था किया गया था। नंदलाल बाबू को भी पास निर्गत किया गया था। वे जैसे ही मतगणना कक्ष में पहुंचे तो वहां पर बैठे तात्कालीन डीसी एस एन गुप्ता ने अनादर करने के ख्याल से पूछ दिया कि आप कौन हैं? और कैसे यहां तक आ गए? नंदलाल बाबू पहले तो चौके पर तुरंत बोले कि मैं हिन्दुस्तान हिन्दी का निज संवाददाता हूं और आपके द्वारा जारी पास के मिलने के बाद ही यहां समाचार संकलन करने आया हूं। बाद में उन्हें बैठने के लिए कहा गया पर स्वाभिमान पर लगी चोट के बाद नंदलाल बाबू वहां से तुरंत लौट गए। उस समय नंदलाल बाबू जिला पत्रकार संघ के अध्यक्ष भी थे। उसने अपनी बात पत्रकार संगठन में रखा। इंद्रजीत तिवारी ने मोर्चा संभाला और बाद में जाकर डीसी को नंदलाल बाबू से गलती मांगनी पड़ी। नंदलाल बाबू ने वार्ता के समय डीसी को कहा कि आपसे समाचार संकलन के दौरान भेंट होती रहती थी। आप सदा कहते थे कि आइए परशुरामका जी बैठिए और एका- एक उस दिन आपने सबों के सामने कहा कि आप कौन हैं और यहां तक कैसे आए? यह मेरे स्वाभिमान के खिलाफ था। नंदलाल बाबू ने कहा कि पत्रकार के पास स्वाभिमान ही पूंजी होती है। इसे के सहारे वे जीते- मरते हैं। यही कारण है कि इसके आगे आप कौन कहे, बड़ी- बड़ी हस्ती को भी पत्रकारों को सम्मान देना पड़ता है। पत्रकारिता में लोग सम्मान पाने को लेकर ही आते हैं। आज कुछ लोग इस सम्मान को गिरवी रखकर अपना स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रशासन की जी हजूरी करते हैं। मैं इसमें से नहीं हूं डीसी साहब

गुरुकर्ज उतारा नहीं जा सकता,उनकी अर्थी को दिया पल्लव ने कंधा।

नंदलाल परशुरामका जितने सरल थे उतनी ही लेखनी उनकी मजवूत थी
बिना कोई परिचय पत्र का ही मुझे ले गए थे पत्रकार सम्मेलन में
पल्लव, गोड्डा
बात वर्ष 1991-92 की है। उस समय कुकरमुत्ते की तरह इतने पत्रकार सड़कों पर नहीं उग आए थे। दैनिक हिन्दी में जिले भर में एक ही पत्रकार काम करते थे। नंदलाल परशुरामका जी हिन्दुस्तान, इंद्रजीत तिवारी द टाइम्स ऑफ इंडिया, अभय पालिवार नवभारत टाइम्स, दिवाकांत राजू आज, कृष्णानंद बहादुर हिन्दुस्तान टाइम्स, सीताराम राय जनशक्ति, श्यामानंद वत्स सहित कुछ गिने- चुने पत्रकार ही पत्रकारिता में थे। उस समय दैनिक अखबार में लिखना आसान नहीं था। मैं हाजीपुर से निकलने वाले अखबार अनुगामिनी में हाथ पैर मार रहा था। सुरेंद्र मानपुरी साहब अनुगामिनी के संपादक थे। खबर कागज के पन्नांे पर लिखकर डाक से भेजता था। अधिकांश बड़े दैनिक अखबार के पत्रकार भी यही करते थे। खबर में दम होता था। लेखनी दूर से ही झलक जाती थी। उस समय की चार लाईन की छपी खबर आज के चार पन्नों पर भी भारी होता था। पत्रकारों के प्रति समाज से लेकर प्रशासन में गजब का सम्मान था। नंदलाल बाबू बहुत ही शालीनता से खबर लिखेते थे। मैं इनके पास जाकर बैठता था और कुछ खबर लिखकर दिखलाता था। नंदलाल बाबू और इंद्रतजीत तिवारी साहब मुझे पत्रकारिता में बहुत प्रोत्साहित करते रहते थे। छोटी अखबार में खबर छपती थी तो भी प्रशासन के लोग युवा होते हुए भी सम्मान करते थे। उस समय गोड््डा के डीसी एस एन गुप्ता थे। डीडीसी विमल कीर्ति सिंह थे। एसपी बीएन मिश्रा थे। बोमियो वारी जिला जन संपर्क पदाधिकारी थे। पत्रकार सम्मेलन विधानसभा की तरह होता था। पदाधिकारियों को भय रहता था कि पत्रकार उसके विभाग के खिलाफ कोई प्रश्न वहां पर न उठा दे। उठाए प्रश्नों पर अगले पत्रकार सम्मेलन में कार्रवाई की रिपोर्ट दी जाती थी। मैं नया- नया पत्रकारिता में पैर रख रहा था। कोई परिचय पत्र भी नहीं था। नंदलाल बाबू और इंद्रजीत तिवारी फिर भी मुझे पत्रकार सम्मेलन में ले गए और वहां भी मैं पहली वार कई तीखे प्रश्नों को पूछा। प्रशासन के लोग उसी समय समझ गए कि यह लड़का चुप रहने वाला नहींे है। नंदलाल बाबू ने हाथ पकड़ा तो कल यानि 5 मार्च 2022 को मैंने उनकी अर्थी में कंधा देकर सारे रास्ते चिल्लाता रहा। पत्रकार नंदलाल परशुरामका अमर रहे।

मजदूर की मेहनत ने पत्थरों की ओट में खिला दिया गोल्डमेडलिष्ट फूल

पाकुड़ सदर प्रखंड के रहसपुर के मजदूर सुल्तान शेख ने ये सावित कर दिया है, कि मजदूर मजबूर नहीं होता, वो चाह ले तो किसान बनकर दुनियाँ का पेट भरने के लिए धरती चीर कर अनाज ऊगा दे, गगनचुंबी इमारत बना दे, केनल खोदकर नदियाँ बहा दे, या फिर अपने आँगन की गोद मे समाज, शहर,राज्य और देश को रोशन करनेवाला कोहिनूर पाल ले।
हाँ ये कर दिखाया है मजदूरी करनेवाले सुल्तान ने मेहनत और अच्छी परवरिश के बलपर सुल्तान ने ऐसी सुलतानी दिखाई कि अपने आँगन में बेटे अबू तालिब को ऐसा चिकित्सक गढ़ दिया कि झारखंड के राज्यपाल ने गोल्ड मेडल से नवाजा।
मजदूर के बेटे ने पिता की नाकाफ़ी कमाई और आये दिन अभाव के कंकडिले राह पर चल कर अपनी प्रतिभा का ऐसा लोहा मनवाया कि उसके पिता के साथ सम्पूर्ण पकुड़वासी गौरव का अनुभव कर रहे हैं।
अब पाकुड़ के पथरीली जमीन पर पत्थरों की ओट से एक ऐसा डॉक्टर फूल खिला है, जिसके हाथ मे उनकी काबिलियत की गवाही देता चमचमाता गोल्डमेडल है।
तालिब ने डॉक्टर की पढ़ाई में लिया है गोल्डमेडल।

छोड़ गए हमें पत्रकारिता के भीष्मपितामह, पत्रकारों में शोक

*अब नहीं रहे संथालपरगना के पत्रकारिता के भीष्म पितामह नंदलाल परशुरामका जी*
पत्रकारिता में दधीची की तरह अपनी हड्डी तक गला दिए पत्रकार नंदलाल परशुरामका ने
संतालपरगना में पत्रकारिता के भीष्म पितामह कहे जाते हैं नंदलाल परशुरामका
*पल्लव, गोड्डा*
उम्र करीब 88 साल। धोती- कुर्ता पहने अभी भी खबर के लिए इधर से उधर जाना। खबर खोजकर प्रकाशित करना ही जिसकी िजंदगी बन गई हो। न आज तक खबर के लिए अपना इमान बेचे न ही ईमानदारी से डिगे। ऐसे ही एक पत्रकार का नाम है नंदलाल परशुरामका। भले ही पत्रकारिता में कितनों भी गिरवट की रंग चढ़ गई हो? पर गोड्डा के नंदलाल परशुरामका को इस रंग ने आज तक नहीं छू पाया। सच कहा जाय तो पत्रकारिता में दधीची की हड्डी की तरह अपनी जिंदगी को गला देने का दूसरा नाम है नंदलाल परशुरामका। पत्रकारिता में संतालपरगना में इतने उम्र के सक्रिय पत्रकार अब कम बचे हैं। संतालपरगना के लोग नंदलाल परशुरामका को पत्रकारिता के भीष्म पितामह कहते हैं।
कैसे शुरू की पत्रकारिता
नंदलाल परशुरामका के पिता महादेव राम परशुरामका गोड्डा के बहुत अच्छे और नामी पत्रकार थे। बिहार से निकलनी वाली अखबार प्रदीप के वे संवाददाता थे। अपने पिता को समाचार लिखते, वे शुरू से देखते रहते थे। पढ़ाई के दौरान ही वे भी पिता की तरह लिखना चाहते थे। 1952 में ही कभी कविता तो कभी कहानी आगरा से प्रकाशित होने वाली नोंकझांेक तो कभी पंजाव से प्रकाशित होने वाली रंगीला मुसाफिर में भेजने लगे। जब इसकी कविता- कहानी उन दिनों छप जाती तो वे बेहद खुश होते। इसी तरह लिखने का सिलसिला जो जारी हुआ, वह आज तक अनवरत जारी है। पिता महादेव राम परशुरामका जब काम के सिलसिले में बाहर जाते तो नंदलाल परशुरामका ही प्रदीप में पिता के बदले खबर लिख देते। इस तरह नंदलाल परशुरामका को अखबार में लिखने की आदत लग गई। काम के सिलसिले में जब पटना नंदलाल बाबू जाते तो वे उपसंपादक को सीधे समाचार टेबुल तक पहुंचा देते। पिता- पुत्र का चेहरा लगभग मिलने के कारण समाचार संपादक कहते कि आप बहुत सुख गए हैं महादेव बाबू। महादेव राम परशुरामका मोटे- तगड़े थे, जबकि नंदलाल परशुरामका दुबेले-पतले थे। नंदलाल परशुरामका कुछ नहीं बोलते। इस तरह खबर लिखने का सिलसिला जारी रहा।
समाचार संपादक बोले कि संवाददाता आप या यह
नंदलाल परशुरामका अपने पुराने दिनों की याद को ताजा करते हुए बताते हैं कि एकवार पिताजी और मैं दोनो दैनिक प्रदीप के पटना कार्यालय में गया। वहां पर कार्यरत समाचार संपादक रामजी सिंह दोनों को देखकर चौंके, और बोले कि अखबार का संवाददाता आप हैं महादेव बाबू या यह लड़का? यह लड़का तो कई वार कार्यालय आया और खबर दिया। जिसे मैंने छापा है। तब महादेव राम परशुरामका बोले कि यह मेरा लड़का नंदलाल परशुरामका है। मुझे देखते- देखते लिखने सीख गया है। इसलिए जब मैं गोड्डा से बाहर रहता हूं तो यही आपको वहां की खबर लिखकर भेज देता है। तब रामजी सिंह बोले िक कोई बात नहीं? लिखते रहिए और समाचार भेजते रहिए।
1981 में पिताजी के देहांत के बाद प्रदीप से जूट गए नंदलाल परशुरामका
1981 में महादेव राम परशुरामका का निधन हो गया। नंदलाल परशुरामका दैनिक प्रदीप के पटना कार्यालय गए। समाचार संपादक रामजी सिंह बोले कि एक आवेदन आप लिखकर संपादक को दीजिए। उनके कहने पर नंदलाल परशुरामका ने संवाददाता के लिए आवेदन दिया और वे प्रदीप के संवाददाता बन गए। इस तरह वे 1981 से सक्रिय पत्रकारिता में पैर रख दिए। फिर वर्ष 1984 में जब दैनिक प्रदीप हिन्दुस्तान बन गया तो नंदलाल परशुरामका गोड्डा से हिन्दुस्तान के निज संवाददाता बन गए, जो आज तक जारी है।
चोंगा छाप पत्रकारों और पत्रकारिता से काफी दुखी हैं नंदलाल परशुरामका
नंदलाल परशुरामका आज के चोंगा छाप पत्रकारों और पत्रकारिता से काफी दुखी हैं। वे कहते हैं कि पहले पत्रकार बनना आसान काम नहीं था। जिसे भाषा की अच्छी पकड़ होती थी। जो अच्छा लिख पाते थे, तथा जिसका नैतिक बल ऊंचा होता था तभी उसे संपादक पत्रकार बनाते थे। आज तो पत्रकारिता में ऐसे-ऐसे लोग आ रहे हैं जो न दस लाईन शुद्ध लिख सकते हैं न ही पत्रकारिता के कोई भी मापदंड को पुरा करते हैं। अपना मोबाइल निकाले और प्लास्टिक के चोंगा पर कुछ नाम लिखे और चिल्लाना शुरू कर दिए। अगर ऐसे अनाड़ी लोग पत्रकारिता मंे आयेंगे तो उससे अच्छाई की कितनी उम्मीद की जा सकती है? ऐसे तथाकथित पत्रकार तो किसी के लिए भी सौ- दौ में अपना ईमान बेचेंगे ही? पर याद रखिए ऐसे लोग पत्रकारिता में ज्यादा दिन जिंदा नहीं रह पायेंगे। अगर कोई इस धंधा बनाकर कुछ कमाने के लिए, भ्रष्टाचारी बनने के लिए इसमें पांव रखा है तो ऐसे बरसाती मेढ़क कम समय ही टर-टरा पाते हैं और इसकी अकाल मृत्यु होना तय रहता है। यह तो आज तक मैं देख ही रहा हूं।
पत्रकारिता समाज सेवा के साथ तपस्या है
नंदलाल परशुरामका कहते हैं कि पत्रकारिता सब दिन समाज सेवा है। यह तपस्या से कम नहीं है। जिसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, उसे पत्रकारिता में पैर नहीं रखना चाहिए। कारण पत्रकारिता में पैसा नहीं है, इसमें प्रतिष्ठा है। समाज के हर लोगाें की नजर पत्रकारों पर रहती है। पत्रकार को समाज का आईना कहा गया है। अगर आईना पर ही भ्रष्टाचार का धूल चढ़ा रहेगा तो समाज को वह कैसा चेहरा दिखलाएगा? इसलिए पत्रकार अगर गलत काम में संलिप्त रहने लगता है तो उसकी वर्षों से बनाई छवि मिनटों में मिट जाती है। नंदलाल परशुरामका अभी भी कहते हैं कि देश को, समाज को अभी भी अच्छे पत्रकार की जरूरत है। अभी भी समाज में अच्छे पत्रकार हैं जिसके कारण लोकतंत्र जिंदा है।

श्रीकृष्ण, श्रीराम और जटायु, भीष्म की इच्छा मृत्यु पर उनके कर्मों का असर तथा सीख।

हमारे आध्यात्मिक ग्रन्थों में जो भी कथानक आए हैं, वो सभी कथानक हमें कोई न कोई संदेश अवश्य देता है।
जटायु और भीष्मपितामह दोनों क्रमशः रामायण और महाभारत के ऐसे पात्र हैं, जिनकी मृत्यु के समय स्वयं नारायण नर रूप में उपस्थित थे, जटायु श्रीराम की गोद में और भीष्म कृष्ण के सामने मृत्यु को प्राप्त हुए, लेकिन दोनों ही कथानक का संदेश बड़ा गूढ़ है, पढ़ें जरूर–

अंतिम *सांस* गिन रहे *जटायु* ने कहा कि मुझे पता था कि मैं *रावण* से नही *जीत* सकता लेकिन तो भी मैं *लड़ा* ..यदि मैं *नही* *लड़ता* तो आने वाली *पीढियां* मुझे *कायर* कहती
🙏जब *रावण* ने *जटायु* के *दोनों* *पंख* काट डाले… तो *काल* आया और जैसे ही *काल* आया …
तो *गीधराज* *जटायु* ने *मौत* को *ललकार* कहा, —
” *खबरदार* ! ऐ *मृत्यु* ! आगे बढ़ने की कोशिश मत करना… मैं *मृत्यु* को *स्वीकार* तो करूँगा… लेकिन तू मुझे तब तक नहीं *छू* सकता… जब तक मैं *सीता* जी की *सुधि* प्रभु ” *श्रीराम* ” को नहीं सुना देता…!
*मौत* उन्हें *छू* नहीं पा रही है… *काँप* रही है खड़ी हो कर…
*मौत* तब तक खड़ी रही, *काँपती* रही… यही इच्छा मृत्यु का वरदान *जटायु* को मिला।
किन्तु *महाभारत* के *भीष्म* *पितामह* *छह* महीने तक बाणों की *शय्या* पर लेट करके *मौत* का *इंतजार* करते रहे… *आँखों* में *आँसू* हैं … रो रहे हैं… *भगवान* मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं…!
कितना *अलौकिक* है यह दृश्य … *रामायण* मे *जटायु* भगवान की *गोद* रूपी *शय्या* पर लेटे हैं…
प्रभु ” *श्रीराम* ” *रो* रहे हैं और जटायु *हँस* रहे हैं…
वहाँ *महाभारत* में *भीष्म* *पितामह* *रो* रहे हैं और *भगवान* ” *श्रीकृष्ण* ” हँस रहे हैं… *भिन्नता* *प्रतीत* हो रही है कि नहीं… *?*
अंत समय में *जटायु* को प्रभु ” *श्रीराम* ” की गोद की *शय्या* मिली… लेकिन *भीष्म* *पितामह* को मरते समय *बाण* की *शय्या* मिली….!
*जटायु* अपने *कर्म* के *बल* पर अंत समय में भगवान की *गोद* रूपी *शय्या* में प्राण *त्याग* रहा है….
प्रभु ” *श्रीराम* ” की *शरण* में….. और *बाणों* पर लेटे लेटे *भीष्म* *पितामह* *रो* रहे हैं….
ऐसा *अंतर* क्यों?…
ऐसा *अंतर* इसलिए है कि भरे दरबार में *भीष्म* *पितामह* ने *द्रौपदी* की इज्जत को *लुटते* हुए देखा था… *विरोध* नहीं कर पाये थे …!
*दुःशासन* को ललकार देते… *दुर्योधन* को ललकार देते… लेकिन *द्रौपदी* *रोती* रही… *बिलखती* रही… *चीखती* रही… *चिल्लाती* रही… लेकिन *भीष्म* *पितामह* सिर *झुकाये* बैठे रहे… *नारी* की *रक्षा* नहीं कर पाये…!
उसका *परिणाम* यह निकला कि *इच्छा* *मृत्यु* का *वरदान* पाने पर भी *बाणों* की *शय्या* मिली और ….
*जटायु* ने *नारी* का *सम्मान* किया…
अपने *प्राणों* की *आहुति* दे दी… तो मरते समय भगवान ” *श्रीराम* ” की गोद की शय्या मिली…!
जो दूसरों के साथ *गलत* होते देखकर भी आंखें *मूंद* लेते हैं … उनकी गति *भीष्म* जैसी होती है …
जो अपना *परिणाम* जानते हुए भी…औरों के लिए *संघर्ष* करते है, उसका माहात्म्य *जटायु* जैसा *कीर्तिवान* होता है।
🙏 साथियों, *गलत* का *विरोध* जरूर करना चाहिए। ” *सत्य* परेशान जरूर होता है, पर *पराजित* नही*

आख़िर हमारी राजनीति क्यूँ बुलबुली की माँ जैसों की दर्द समझना नहीं चाहती ?

बात बहुत पुरानी है, लेकिन कई तरह की सीख देनेवाली इस कहानी को मैनें 1990 के दशक में ख़ोज निकली थी।
हँलांकि कहानी का किरदार सांवली रंग, दुबली-पतली काया, लगभग कंकाल स्वरूपा , गहरी धंसी गोल आँखें जिनपर मोटा सा कांच का चश्मा, एक सफ़ेद साड़ी में लिपटी झारखंड के पाकुड़ जिले के राजपाड़ा की गलियों में घूमती हर किसी को दिख जाती थी। उसके मोटे चश्में से किसी को निहारती आँखें न जाने कितनी दर्द की कहानियाँ कहतीं सी लगती थी, लेकिन बुलबुली की माँ के नाम से जाना जाने वाली इसके दर्द को कभी किसी ने जानने और समझने की ज़हमत नहीं उठाई थी।
हाँ बच्चों के झुंड और युवकों के समूह के लिए वो कंकालस्वरूपा बुढ़िया एक मनोरंजन का साधन मात्र था।
जिस गली से वो गुजर जाती, मानो बच्चों और किशोरों के समूहों के हाथ कोई मनोरंजन की लॉटरी लग गई हो।
महिला की वो काली छाया जिस गली में जाती, बच्चों और किशोरों के समूह से एक आवाज़ आती , ” आलू पोटोलेर तोरकारी, बुलबुलीर माँ सोरकारी “।
बस ये आवाज़ बुढ़िया के कान तक पहुँचते ही मानो बुढ़िया को करंट लग गया हो , फिर बुढ़िया के हाथ मे पत्थर और गली में दौड़ लगा कर इधर-उधर भागते लोग।
ये ज़रूरी नहीं कि वो पत्थर बुढ़िया उसी पर फ़ेंके जिसने उसे चिढ़ाया हो।
वो पत्थर जब बुढ़िया के हाथ से छूटता, तो वो किसी को भी लग सकता था और फिर वो आख़री पत्थर भी तो नहीं होता , पूरी गली , मोहल्ले में तूफ़ान खड़ी कर देती थी वो मरियल सी कंकालस्वरूपा।
आख़िर क्यूँ ऐसा होता कि जो हवा के एक झोंखे से ख़ुद को न सँभाल पाने की ताक़त रखने वाली बुढ़िया सिर्फ़ ” आलू पोटोलेर तोरकारी बुलबुलीर माँ सोरकारी” बोलने भर से तूफ़ान खड़ा कर देती है। कई बार बिना क़सूर के मैं भी बुढ़िया के पत्थरों का शिकार हो चुका था।
बुढ़िया के पत्थरों ने मुझे कभी उतना दर्द नहीं दिया, जितना उसके गुस्से के कारणों की जिज्ञासा ने मुझे कर रखा था।
कई बार बुढ़िया से कारण जानने के मेरे प्रयास ने मुझे बुढ़िया से पिटवा तो दिया, लेकिन मैं कारण जानने में असफ़ल रहा।
बुलबुली की माँ, हाँ उसका तो अब नाम भी यही था, अपनी पहचान अपना नाम तक भूल चुकी वो बुढ़िया सिर्फ बुलबुली की माँ के नाम से ही जानी जाती थी।
अपने जीवन यापन के लिए बुढ़िया दूसरे के यहाँ झाड़ू पोछा और बर्तन माँजती थी।
जिस घर में वो बुढ़िया बर्तन माँजती थी, उस घरवालों से मेरा अच्छा सम्बन्ध था। मैंनें बुलबुली की माँ के दर्द को समझने और उसकी गहरी धंसी आँखों के पीछे छूपी कहानियों को तलाशने के लिए उस घर के कुँए के पास बैठने की जगह बना ली।
बुलबुली की माँ बर्तन माँजती और मैं उससे इधर उधर की बातें कर उसके दर्दों में झाँकने की कोशिश करता, लेकिन उस चिढ़ने वाली सवाल पर पहुँचते ही मैं पिट जाता। मेरी जिज्ञासा ने न ज़िद छोड़ी और हर एक दो दिन के अंतराल पर बुलबुली की माँ ने मुझे पीटना।
उस घर के लोग भी मुझे समझाते छोड़िए, आप क्यूँ इस पगली से मार खाते हैं !
गर्म और किसी से न दब कर रहनेवाली मेरी आदतों को जानने वाले उस घर के लोग मेरे पिट जाने की धैर्य से अचंभित थे। लेकिन मेरी पत्रकारिता ने मुझे कभी हार न मानने की सीख दे रखी थी , मैं भी उस बुढ़िया में दफ़न दर्द को निकालने को आतुर था।
एक दिन बुढ़िया सब्जी बनाने वाली एक वज़नदार कड़ाई माँज रही थी, मेरे सवाल पर उसने जवाब में वो कड़ाई मेरे सर पर दे मारी , मेरा सर फूट गया, खून का फब्बारा मेरे सर से निकल पड़ा।
इधर मेरे सर से खून निकल रहे थे, उधर वो कंकालस्वरूपा फूट फूट कर रो रही थी, मेरे सर और घाव को सहलाते हुए मलहम लगा रही थी। पत्थरों से पीछा कर मरनेवाली आज ममतामयी बन गई थी।
मेरे बहते खून ने उसके आँसुओं की बांध को तोड़ दिया था। उसके आँसुओं के साथ उसकी दर्द की कहानी भी निकल आई। मेरा अथक प्रयास, पिटते रहने के धैर्य ने मानो उसे खुली क़िताब बना दिया था।
उसने बताया अपनी शादी से पहले वह एक सामर्थवान समृद्ध परिवार की लड़की थी। उसके पिता ने उसके अन्य भाई बहनों की तरह समय आने पर उसकी भी शादी एक खाते पीते समकक्ष परिवार मे कर दी।
कालांतर में देश आज़ाद और बिभाजन भी हुआ। बिभाजन ने उसके मायके और ससुराल को भी पाकिस्तान ( वर्तमान बंग्लादेश ) का नागरिक बना दिया।
और फिर दुर्भाग्य ने यहीं से घेरना शुरू किया। कट्टरपंथ ने उसके मायके को लील लिया।
इसी आग में उसके पति, एक मात्र बेटे की उसके सामने निर्मम हत्या कर दी गई। एक बेटी की सामुहिक ब्लातकार के बाद बीचों बीच उसके शरीर को फाड़ दिया। दो नन्ही जान सी बेटियों को ले कर वो शरणार्थी शिविर में आ गई। वहीं बीमारी से एक और बेटी चल बसी। फिर सबसे छोटी बुलबुली नामक बेटी के साथ वो पाकुड़ अपनी बहन के ससुराल आ गई, यहाँ भी बहन के ससुराल पक्ष ने उसे ज्यादा दिन नही रखा।
फिर घरों में घरेलू नोकरानी का काम कर पाकुड़ में ही भाड़े पर रहने लगी। पूरी दर्द की एक क़िताब बन चुकी और असहनीय दर्द से बेज़ार बुलबुली की माँ को शरणार्थी शिविर में मिलनेवाले खाने में रोज रोज आलू परवल की सब्जी से चीढ़ थी , शिविर में कभी कभी वो विद्रोह भी कर जाती थी। यही ख़बर पाकुड़ के बच्चों को भी पता चल गया था।
बंगला में ” आलू पोटोलेर तोरकारी
बुलबुलीर माँ सोरकारी ”
आम बच्चों और युवाओं के लिए तो एक कहावत और बुलबुली माँ की उग्र प्रतिक्रिया एक मनोरंजन मात्र था, लेकिन ये किसी को पता नहीं था, कि इतना कहना भर बुलबुली की माँ के सारे दर्द को कुरेद देता था।
बुलबुली की माँ दशक पहले वहाँ चली गई, जहाँ अब उसे कोई दर्द न होगा और न दे पाएगा, लेकिन आज भी उनकी कहानी आज के राजनिज्ञों से सैकड़ों सवाल पूछती है।
अफ़सोस कि इन सवालों के जवाब हमारी राजनीति और व्यवस्था दे पातीं। 😥