Sunday, November 24, 2024
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शहरों में कराहती कल का नटखट बचपन, सुनी पड़ी सिसकियाँ लेता बृद्ध वर्तमान

भौतिकता की दौड़ खा गई है बचपन की यादों तक को , वीरान पड़े हैं बचपन की शोर मचाती वो गलियां , जिन पर दोस्तों के साथ दौड़ लगाते खेलते-कूदते हमारी एक अंगड़ाई ने हमें यौवन दिया , और हम खो गए ज़िम्मेदारियों में। पूरा का पूरा हमारा वो बचपन का कुनबा अब सोसल साइट्स पर ही दिखता है। अब हाथ पकड़ तो कभी कांधों पर हाथ रख घूमता हमारा जहां मानो कोई अनजान शक्ति लूट गया हो!

वो कंचे की गोलयों की खनखनाहट वाली हमारी जेबों में अब क्रेडिट कार्ड के जखीरों वाले बटुवों (पर्स) ने छीन लिए हैं। हमारे गुल्ली डंडो वाले फील्ड के खाली पड़े मैदान में उग आई झाड़ियों ने कब्जा जमा रखा है। वो पिट्टओ खेलने की भागदौड़ अब बदल गई है, जिंदगी की अन्य नीरस पहलुओं की भागदौड़ में।
भाग हम आज भी रहे हैं लेकिन उसके उद्देश्य , वज़ह और जगह बदल गए हैं।
इन वजहों में वो निर्दोषता नही , इन वजहों में भी एक स्वार्थजनित वज़ह हैं।
आश्चर्य है ! उन बेवजह की गलियों में दौड़ते बचपन में वजह सिर्फ़ बेवजह होतीं थीं, लेकिन आज वजहों में भी वज़ह की भीड़ है।
जब भी अपने पुराने शहर, गाँव या मुहल्ले की गलियों में जाता हूँ, तो वहाँ बेगाने से लगता हूँ। पुरानी गलियों के पुरानी इमारतों से वो रौनक ग़ायब है, वहाँ का कलरव वो शोर-गुल जिससे गुलज़ार रहता था मुहल्ला , रोशन रहती थीं गलियाँ , वह सभी उजड़े घोसले से दिखते हैं।
उन घोसलों से इक खमोश सिसकियाँ ख़ामोशी से कान नहीं दिमाग़ को सुनाई पड़ती हैं। इन घोसलों से आँख खुलते ही नए आए पँखों को फड़फड़ाते उड़ गए हैं बच्चे, जिनसे गलियाँ गुलज़ार रहा करतीं थीं।
उन नए पँख वालों ने बसा और बना लिया है अबके नया घोसला , जो शहरों के अपार्टमेंट्स में है। वहाँ कोई खुला मैदान नहीं, कोई बच्चों के निर्दोष बचपन से गुलजार गलियाँ नहीं। वहाँ का बचपन लेपटॉप, डेस्कटॉप और मोबाइल स्क्रीन पर ठहर गया है। शहर कराह रहा है, बोझ बहुत है वहाँ ।
ओर वहाँ गाँव मुहल्ले की सुनसान बीरान पड़ी गलियों के पुराने घोसलों में बुढ़ापा सिसकियाँ ले रहा है। खिड़कियों से बूढ़ी गहरी धसीं आँखें , तो कभी दरों दरवाजों पर कोई साया दूर तलक गलियों में किसी की राह तकती नज़र आती है।
इधर सिसकियाँ है, तो उधर कराह,
इधर सूनापन है, तो उधर भीड़ और तपिश,
इधर पिता की छाँव है,
माँ के आँचल की ममता और शीतलता है,
तो उधर बॉस का ऑफिसियल कड़क निगरानी है,
घर पर ठंडक देने के लिए ए सी तो है,
लेकिन यहाँ माँ की आँचल की सकून देनेवाली शीतलता सूनी पड़ी है।
मैं अपने बचपन के कुनबे में अकेला बेरोजगार-बेगार, बेगैरत अपाहिज बोझ बना रहा गया।
इसलिए इन सूनी पड़ी गलियों की सिसकियों से लेकर शहर तक की भागती दौड़ती सड़कों पर बोझ तले दबी कराह तक को टटोलता रहता हूँ।
दोनों ही जगह मुझे एक बेदर्द दर्द दिखता है, जिसे दोनों जगह की महत्वाकांक्षाओं ने जन्म दिया है।
इन पुरानी गलियों को ग्रेंड मोम – पा बोलने वाले नाती-पोतों की चाहत थीं , तो गलियों में गुल्ली डंडो से खेलते बचपन को युवा होते ही शहरों की चकाचौंध , शहरी अंग्रेजी बोलती गोरियों और मम्मी पापा कहलाने की लालसा ने एक ओर अकेलापन, सुनी आँचल और वीरान गलियों में सिसकते मकान रह गए , तो दूसरी ओर शहर की भीड़ में कराहती भागमभाग और स्क्रीनों पर सिमटी नई पीढ़ी मिली।

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2 COMMENTS

  1. लाज़वाब लेख एक लेखनी के जादूगर बच्चन की। वाह

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