समाज में परम्पराएं अपनी एक अलग महत्व रखतीं हैं। लेकिन कुछ परम्पराएं बोझ बन पीढ़ियों को बोझिल कर जातीं हैं, जिसे निभा पाना संभव नहीं हो पाता, और कई तरह की समस्याएं खड़ी होतीं हैं। यहाँ तक कि कई रिश्तों में दूरियाँ और खटास पैदा कर देतीं हैं। मैं अभी अपनी आपबीती बताना चाहूँगा। हो सकता है आप मेरी बातों से सहमत न हों , लेकिन हाशिये पर खड़े होकर अगर साक्षी भाव से देखेंगे और समझने का प्रयास करेंगे तो शायद सहमत भी हो जाएं।
झारखंड के पाकुड़ में एक परंपरा रही है कि अगर आपके यहाँ शादी ब्याह जैसा कोई आयोजन है , तो आप आमंत्रण पत्र पहले ही क्यूँ न बाँट आएं , आयोजन के दिन मौखिक आमंत्रण पुनः भिजवाना होगा। ऐसा नहीं करने पर पहले के आमंत्रण पत्र निष्क्रिय हो जाते हैं और आमंत्रित परिवार का कोई भी सदस्य आपके यहाँ आयोजन में नहीं आएगा। हाँलाकि ये परम्परा यहाँ के मूल निवासियों पर लागू होता है। कालांतर में बाहर से आकर बसे परिवारों के लिए आमंत्रण पत्र ही काफ़ी होता है।
पाकुड़ पहले एक छोटा सा क़स्बाई नगर था , या आप यूँ कह लें गाँव था। समाज में सहयोगी युवाओं की भी कमी नहीं थी , तथा परिवार भी संयुक्त एवं पर्याप्त पुरुषों की संख्या वाले होते थे। नतीजन आमंत्रण पत्र के बाद भी आयोजन वाले दिन मेन पावर के कारण मौखिक आमंत्रण भेजवाने में परेशानी नहीं होती थी ।
लेकिन अब वो छोटा सा पाकुड़ बड़ा सा जिला मुख्यालय हो गया है। संयुक्त परिवार भी अब पहले जैसे नहीं रह गए। समाज के युवाओं में बिभिन्न प्रकार के भटकाव उनके सहयोगी स्वभाव को भी निगल चुका है।
ऐसे में मैंनें स्वयं अहसासा कि ये परम्परा अब एक बोझ सरीखा हो गया है।
पिछले वर्ष मेरी बेटी की शादी में हुआ यूँ कि मेरे एक अभिन्न मित्र जो मेरे वक़्त बेवक़्त खड़ा रहता था, (और मैं भी अपनी ओर से ऐसा ही प्रयास करता था,) के घर स्वयं मेरी पत्नी ने आमंत्रण पत्र पहुँचा कर ये आग्रह किया कि इस आमंत्रण पत्र को ही महत्व दें। विवाह के दिन कोई मौखिक कहने न आ पाए , तो आज ही मैं मौखिक भी आपके परिवार को आमंत्रित कर रही हूँ।
मेरा मित्र हर दिन मेरे घर आकर विवाह की तैयारियों को देखता और कमी बेसी पर सलाह मशवरा भी देता रहता।
विवाह के दिन मेरे बेटे और भाई से भूल हो गई और उनके घर मौखिक आमंत्रण नहीं पड़ा। इधर मैं बेटी का बाप होने के नाते , और गोधूलि लग्न के कारण 4 बजे ही बारात दरवाजे पर आ जाने से आमंत्रण के विषय में पूछताछ नहीं कर सका, और मेरे मित्र सहित उसके परिवार से कोई नहीं आया।
मेरे मित्र से मैं काफ़ी नाराज़ हुआ। कई मौकों पर परिस्थितिवश इस वर्ष भर में मैंनें उससे सार्वजनिक रूप से दुर्व्यवहार भी किया। वर्ष बीतने के बाद मुझे सभी बातों का पता चला।
लेकिन एक परंपरा के कारण जीवंत रिश्ता दम तोड़ चुका था।
ऐसी परम्पराओं से अब हमें तौबा करनी चाहिए।
एक गरीब बेटी का बाप विवाह वाले दिन व्यवस्थाओं में एक रिश्ता जोड़ने की कयावद में रहे कि किसी दशकों के रिश्ते को परम्परा की भेंट चढ़ते देखे !
एक बार ऐसी परम्पराओं पर समाज समीक्षा करे , ये निवेदन होगा। कृपया एक बार सोचिए न , जिंदगी और ज़िम्मेदारियाँ बहुत कठिन हो गया है भाई इन दिनों🙏🏼
समय , समाज और परिस्थियाँ बदलने के साथ कुछ बोझ बनते परम्पराओं पर होनी चाहिए समीक्षा
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