Friday, November 22, 2024
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ज़िंदगी पर भारी पड़ते साल के कुछ महीने खुलकर रोने भी नहीं देतीं

एक व्यंग का प्रयास जो हक़ीक़त है।

फरवरी मार्च और अप्रैल का महीना सरकार के विभाग और जिम्मेदारियां इतनी बेरहम हो जाती हैं कि हमें जीने नही देती।
इन्ही दिनों बच्चों की परीक्षाएं
टेक्स भरने के लिए नोटिशें
नगरपालिका ,बिजली विभाग , बैंक जैसे सभी बेरहमों के प्रेम पत्र और न जाने क्या क्या !
हे भगवान फिर बच्चों का रिएडमिशन, किताबें ड्रेस
सच में जीने पर भी सोचना पड़ जाता है
लेकिन सरकारें इन विषयों पर क्यों नही सोचती ?
मैं ये नही कहता कि सब माफ़ कर दो लेकिन सोचो यार
किश्तों में मारो
ये हक़ है आपको कि आप चाहे जो करें
मगर क़त्ल भी करें तो जरा प्यार से
खाश कर हम जैसे लोगों के लिए बड़ी समस्या है सरकार
क्योंकि ठहरे मुफ़सील पत्रकार और स्वाभिमानी बनने के ढोंग में विज्ञापन भी नही उठा पाते, अख़बार और टी भी वालों के कोर्ट पेंट , ए सी , बंगला, ठाट बाट सब हमारे खून पर ही चलते हैं । किसी तरह पमरिया , बन्दी चारण के तर्ज़ पर अपना जीवन बसर करते हैं , ताकि हमारे मालिकों को खून मिल सके।
और हाँ मेरा पारिवारिक बैकग्राउंड भी ऐसा है, कि अगर कहीं नॉकरी ….पार्ट या फूल टाइम जॉब भी मांगने जाते हैं, तो कोई विस्वास ही नही करता … हंस कर ठहाकों के साथ प्रेम से चाय वाय पिलाते हुए ये कह कर टाल जाते हैं कि आपको और नोकरी मज़ाक मत कीजिये साहब , देश विदेश ……………..
( आप क्या और किस वर्तमान परिस्थितियों में हैं से किसी का परिचय नही होता , आपके पिता क्या थे , आपके भाई बन्धु , सम्बंधियों पर ही लोग आपका मूल्यांकन करते हैं। ये कोई नहीं समझता कि कोई कौन क्या है, क्या था से सिर्फ़ और सिर्फ़ आपकी एक पहचान भर बनती है , आपके आर्थिक मूल्यांकन से इसका कोई सम्बंध नही होता। )
खैर टाल जाते हैं ,अब उनको कैसे समझाये कि हमको तो यही हमी होने ने मारा है
कभी बेबशी ने मारा
कभी बेकशी ने मारा
किस किस का नाम लूँ
मुझे हर किसी में मारा
बस सरकार और हालात से विनम्र प्रार्थना है कि हम जैसे बीच में लटके न अमीर न गरीब बन सके लोगों को जरा किश्तों में मारें तो बड़ी कृपा होगी।
मिट्टी की दीवारों के पीछे सौंधी सुगंध मिलती है, लेकिन हमारे जैसे बेरोजगार कलमकारों के बपौती पक्के मकानों की दीवारों की आड़ में एक ख़ामोश सिसकियाँ दबी पड़ी मिलेंगी , जो चाह कर भी आवाज़ नहीं करती।

मेरे एक पुलिस वाले कवि मित्र की कुछ पन्तियाँ ऐसे में मुझे याद आ जाती है —
” आसमान की ऊँचाइयों की क्या बात करें हम,
पेट की गहराइयों में खो गया है आदमी ”
हम जैसे आदमियों के बारे में सरकार कुछ आदमियत दिखाते हुए ईएमआई तय कर दे हमारी समस्याओं का।
क्योंकि थोक में एकमुश्त समस्याएं रस्सी और ज़हर की पुड़िया ढूँढने को बेबस करती है , लेकिन मंगहाई की डायन ऐसी बेदर्दी दिखाती है कि …..
खैर क्या किश्तों में हम नही दुहे या मारे जा सकते ?
नहीं बस यूँ बस पूछ रहा था , ऐसे ज़हर और रस्सी का पैसा बचाकर आज मैंनें एक किश्त चुका दी है जिम्मेदारी का 😊

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