चुनावी घोषणा के बाद , विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की भी टिकटार्थी और उम्मीदवारों की भी पुष्ट अपुष्ट घोषणाएं आ और चुनावी चर्चे की हवा में गुम भी हो रही हैं।
राजनेताओं का जन्मसिद्ध अधिकार भी परम चरम पर है। पाले बैनर बदले जा रहे हैं, और बदलने की उम्मीद भी है।
इतनी बातें-नबातें-कुबातेँ और भीन्न बातें हैं कि लिखने में न चाहते हुए भी कई कई बार ” भी ” शब्द आ ही जा रहा है।
बंगलादेशी , भ्र्ष्टाचार आदि को मुद्दे बनाकर मैदान में जो पार्टी ताल ठोक रही थीं , उसमें गठबंधन के तहत सीटों के बंटवारे पर ज़्यादा असन्तोष नज़र आ रहा है। उधर एक तथाकथित अफ़वाह पर दुमका में एक ही पार्टी के दो गुटों के समर्थक आपस में भिड़ गए।
इधर पाकुड़ में डेमोग्राफी बदलने और घुसपैठ की बातों पर ताल ठोक गये राष्ट्रीय और बड़ी पार्टी के बड़े नेताओं ने पाकुड़ सीट आजसू को दे दिया की चर्चे पर ही लम्बे समय से भाजपा में असंतोष की बू सोसल मीडिया पर आ रही है।
बू नहीं महक कह लें , तो गठबंधन की इस सीट पर ये असन्तोष की महक कब बू बन जाय कहना मुश्किल है। भाजपा कार्यकर्ता ये गले नहीं उतार पा रहे कि इस सीट को बिना लड़े आजसू की झोली में डाल दी जाय।
चर्चा है कि पूर्व जिला परिषद उपाध्यक्ष मुकेश शुक्ला उर्फ पिंकू शुक्ला निर्दलीय उम्मीदवार बन आजसू को उफ़ बोलवा दें। ऐसे जिलापरिषद उपाध्यक्ष के तौर पर किये गए उनके कार्यों को भाजपा के असंतुष्ट कार्यकर्ता अनदेखा नहीं कर सकते। इसलिए अगर शुक्ला जी बगावत कर गये , तो कमल के मतदाताओं के भी बगावत की उम्मीद सोसल मीडिया पर दिखती है। हाँलाकि ये सभी आशंकाए हैं, लेकिन ऐसी आशंकाए ही तो चुनावी मौसम मनोरंजन की माध्यम होतीं हैं।
ऐसे बागियों की संख्या कम होगी ऐसा नहीं है। पूरे जिले में तीनों विधानसभा क्षेत्र में कई पार्टियों को बागियों से निपटना होगा।
लेकिन बंगलादेशी घुसपैठ के मुद्दे को गर्म कर अगर भाजपा पाकुड़ सीट पर ही चुनाव न लड़े , तो सोसल मीडिया पर आ रही महक गठबंधन के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं दे रहा।
अभी चर्चा ये है कि पार्टी के अंदर सब सुलझा लिया जाएगा , लेकिन अगर बागियों ने नहीं माना तो गठबंधन का बना बनाया खेल बिगड़ सकता है।
मुद्दे गर्म कर गठबंधन के नाम पर सीट छोड़ना कार्यकर्ताओं को मंजूर नहीं , रंग को भंग कर सकते हैं पिंकू शुक्ला और समर्थक।
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