Sunday, October 19, 2025
HomeBlogहमारी संस्कृति को कहीं आयातित सोच और साज़िश निगल तो नहीं रही...

हमारी संस्कृति को कहीं आयातित सोच और साज़िश निगल तो नहीं रही ? चिंतनीय और चिंतन का विषय😥

“बोदू दा” हाँ हम सभी बचपन से पाकुड़ में इसी नाम से सम्बोधित करते थे। बहुत एनर्जेटिक थे , हँलांकि वे चाय की दुकान चलाते थे , लेकिन सम्मान में उनकी कोई सानी नहीं था। मिलनसार और मानवीयता के तो जैसे वे एक सजीव साकार मानव शरीर में किसी फ़रिश्ता से कम नहीं थे। उम्र किसी को नहीं को नहीं छोड़ता।
एक उम्र के बाद उन्हें चलने में परेशानी थी , लेकिन मस्जिद में कोई नमाज़ उनसे नहीं छूटता।
संयोग कुछ ऐसा था कि जब मैं मन्दिर जाता तो ठीक उसी समय वे मस्जिद जा रहे होते , और मैं उन्हें अपनी मोटरसाइकिल से पहले मस्जिद पहुँचा कर फिर मन्दिर जाता। उनसे रोज मुझे दुआँ और आशीर्वाद मिलता फिर मन्दिर में माँ काली के पास जाता।
मुझे ऐसा लगता कि माँ काली जैसे मुझे खामोश मुस्कान के साथ कह रही हो कि तुम “बोदू दा” को मस्जिद पहुँचा कर मेरी हाज़री तो लगा ही चुके हो।
किसी चलने से लाचार को ईबादत के लिए मस्जिद तक छोड़ आना क्या किसी पूजा से कम है ? इस सवाल का जवाब मुझे माँ काली की मध्यम मधुर मुस्कान से मिल जाती थी।
मेरा छोटा भाई सा मक़सूद का मेरी हर परिस्थिति में साथ खड़ा रहना , मुझे और मक़सूद को भी कभी अलग अलग मजहब के होने का एहसास ही नहीं होने देता। क़ासिम को भी कैसे भूलूँ।
लुत्फुल हक़ का हर सीमा से परे समाज के लिए हर तरह से खड़ा रहना एक उदाहरण है। कुछ विषय और व्यक्तित्व ऐसा होता है, जिस पर लिखना कहना काफ़ी कम हो जाता है। मेरे युवावस्था का साथी बंगाल का नाजु शेख़ अविस्मरणीय व्यक्तित्व।
खैर आज मैं कोलकाता जा रहा था। आज अपनी इस यात्रा में मैनें कुछ ऐसा अहसासा कि समाज की गंगा जमुनी तहजीब कहीं खो सा गया है। हम अब भरतीय न रह कर हिन्दू मुसलमान हो गये हैं।
बंगाल की ट्रेनों में भिखारी तो नहीं कह सकते , सहयोग माँगने वाले बहुतायत आते हैं।
पहले लोग बिना मज़हब देखे दान करते थे , लेकिन आज मैं अचंभित और निराशा की गर्त में गिरा जब देखा कि बाउल गीत और भजन गाने वाले याचकों को भी दान देने में मजहबी झलक दिखी। पहले ऐसा नहीं था। मैनें बचपन से इस इलाके के समाज को जीया और देखा है। लेकिन आज की हालात ने मुझे काफ़ी दर्द का अहसास कराया। क्यूँ ऐसे समृद्ध सामाजिक मूल्यों का इतना ह्रास हो गया ?
हमारा समाज तो ऐसा अंधकट्टर नहीं था।
यहीं यह सवाल मन में उठता है ,कि क्या ये कट्टरपंथी सोच आयातित है ? हम तो ऐसे नहीं थे , तो फिर अब ऐसा क्यूँ।
मोहम्मद बेचन मियाँ के दरवाजे पर तो बिना मज़हब देखे लोगों को महीने भर का राशन मिल जाता था। जब मोहम्मद बेचन मियाँ का इन्तकाल हुआ तो कब्रिस्तान में मुसलमानों से तीन गुना ज्यादा गैरमुस्लिम जनाज़े में शामिल थे।
कहाँ खो गया वो सब ! कि अब भीख भी मज़हबी हो गया ! ये सब आयातित सोच और विचारधारा हमारी संस्कृति को खाये जा रही है। दुखद है बहुत ही दुखद।

Comment box में अपनी राय अवश्य दे....

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments