सुदीप त्रिवेदी की कलम से
आज मजदूर दिवस है। हर तरफ़ अवकाश का माहौल है। लेकिन पाकुड़ की गलियों और सड़कों पर बाल श्रमिकों के चेहरे रहनुमाओं से बरबस ये पूछती सी लगती हैं —–
“तेरे लाखों अम्बारों में से मुझे क्या मिला ,
प्यार का इक़ तार मिला ,वो भी इकहरा।
पूरे देश में श्रमिक दिवस पर विशेष कार्यक्रम हो रहें हैं, कार्यालयों में अवकाश घोषित है। श्रमिक के उत्थान पर बड़े बड़े व्याख्यान दिए जा रहे होंगे, लेकिन दूसरी ओर श्रमिक दिवस के दिन ऐसे नजारे भी आम है, या यूं कहें कि ऐसी तस्वीरें हर दिन सड़क पर देखीं जाती है जहां बच्चे कोयला ढो रहे हैं।
हालांकि इनसे बेगारी कोई नहीं करता और दूसरी तरफ सरकार इन नौ निहालों के लिए योजनाएं भी चलाती है। सवाल यह है कि आखिर इनको इस तरह के काम में कौन भेजता है ? केवल सरकार को कटघरे में खड़ा करने से इस समस्या का हल नहीं निकल सकता। इनके अभिभावकों की भी जिम्मेदारी बनती है कि इन्हें केवल कमाऊ पूत ना बनाएं बल्कि इन्हें मानव संसाधन बनाएं।
पाकुड़ के हर सड़क व गली मुहल्लों से कोयला लेकर गुजरने वाले ये बच्चे शायद हम जैसे कर्मच्यूत हो चुके प्रौढ के कारण जीवन के उस मार्ग से गुजर रहे हैं जो इनको केवल श्रमिक ही बनाएगी।
बालश्रम कानूनन अपराध है, अब यक्षप्रश्न तो ये है कि ये अपराध कौन कर या करवा रहा है ? क्या कानून के पास ऐसी कोई धारा है जो घर की दहलीज के भीतर जाकर इनके पालकों को बता सके कि ऐसा करवाना गलत है।
आखिरी सवाल, कि क्या केवल पेट की गहराई को पाटने के लिए हंसते व खिलखिलाती मासूम जिंदगी को अंधकार की गहराई में धकेल देना उचित है ? जब तक इस सवाल के जबाब ना मिल जाए तब तक संभवत श्रमिक दिवस व बाल दिवस की बात करनी बेमानी होगी।