पत्रकारिता के रास्ते मेरी कलम की सफ़र की कहानी मैंनें कल के आलेख में बताया था। हँलांकि प्रकाशन के अभाव में कलम की सफ़र की शुरुआत में ही सर क़लम हो गया, और सरोकार की लेखन की पहली किस्त ही गंगा की गोद में जल समाधी में चला गया, लेकिन मजबूत बुनियाद ने मुझे हताशा में नहीं जाने दिया। आइए उस बुनियाद से भी आपको परिचित कराएं—
किसी भी सकारात्मक सफर की एक मजबूत बुनियाद होती है, जहाँ से प्रेरणा की रक्तसिंचन होती है, वही से लेखन या किसी निर्माण के कल्पनात्मक अदृश्य शरीर की धमनियों में सृजन का रक्त बहकर जीवन का संचार करता है। इसी से परिचय सफ़र शुरुआत की एक भूमिका होती है, और ये भी भूमिका एक आधार या यूँ कहें कि जमीन पर टिकी होती है।
मेरी कलम की चलने की शुरुआत की जमीन मेरे पिता स्वर्गीय प्रोफेसर श्रीकांत तिवारी जी रहे।
उन्होंने कभी ये नही कल्पना की थी, कि उनके पुत्र की कलम पत्रकारिता के रास्ते चलेगी।
हिन्दी के प्रोफेसर, संस्कृत के गोल्डमेडलिष्ट, अंग्रेजी व्याकरण के ज्ञाता और गणित के अच्छे जानकार मेरे पिता ने कभी ये नहीं सोचा कि मैं पत्रकारिता की राह चलूँगा।
एक पिता और तीन-तीन लिटलेचर के ज्ञाता मेरे पिता की गणित इस मामले में सटीक नही निकल सकी थी कि मैं इस ओर चल पड़ूँगा।
उन्होनें मुझे कलम के सफ़र में बस एक अच्छी लेखनी और शायद किसी सरकारी नॉकरी में भेज पाने की मंशा से ही उतारा था।
खैर उनकी अपेक्षा पर मैं सही नहीं उतर पाया, और कंक्रीट के उस रास्ते चल पड़ा जो आज चुभती हुई गिट्टियों की पथरीली राह बन गई है। कैसे और क्यूँ इसपर अगले आलेख में।
अभी बस इतना कि ले कलम का सफ़र शुरू हुआ कैसे और कब ?
बात 1980 के दशक की है। उस समय मैं अपनी मेट्रिक यानी 10 वीं की परीक्षा से लगभग चार साल दूर था। हमारे समय मे लेख लिखने की परंपरा थी। परीक्षाओं में लेख आलेख और संक्षेपण जैसे प्रश्न आते थे।
मैं नटखट और पढ़ाई के प्रति उदासीन किशोरावस्था को जी रहा था। फलस्वरूप पिता की छड़ियों का अक्सर कोपभाजन बनता था।
ऐसी पिता-पुत्र की विरोधावस्था वातावरण के बीच , पिता ने मुझे स्वयं अपने ऊपर एक लेख मुझे अपनी दृष्टिकोण से लिखने को कहा।
शर्त ये था, दृष्टिकोण मेरा स्वयं का हो, एक बड़े पृष्ठ में उसी दिन हिन्दी में वो लिख उनके सामने प्रस्तुत करूँ।
मैं एक ऐसे पिता पर लेख लिखने जा रहा था, जो करीब रोज मेरी मरम्मत कर अपने कोप सिंचन से मुझे गम्भीर अध्ययन के रास्ते पर लाना चाहते थे।
मेरी चंचल मानसिकता, बहिर्गमन बुद्धि, बोद्धिक अकर्मण्यता तथा पढ़ाई के प्रति अरुचि मुझे एक असमंजस में डाले हुए था, कि मैं अपनी दृष्टिकोण से अगर उनपर आलेख लिखूँ तो कैसे।
मुझे याद है, मैं उसदिन काफ़ी विचलित था, उनपर लिखते ही शब्दों की धारा उनकी मेरी होनेवाली आएदिन की मरम्मत की जाल में फँस बिखर जाती।
मैंनें स्वयं को लिखने से पहले सम्भाला। स्वयं को हासिये पड़ खड़ा रखा, फिर एक साक्षी बन अपने पिता के सिर्फ़ मेरे नहीं बल्कि औरों के गुण-अवगुणों का आंकलन करते हुए, उनके व्यवहार को टटोला।
पिता के मेरे और अन्य सुलझे-अनसुलझे लोगों के प्रति व्यवहार का मूल्यांकन कर मैंनें अपने पिता पर आलेख लिखा।
हँलांकि मेरे पिता क्या थे, कैसे थे, इसका मूल्यांकन की औकात मेरी नहीं। आज भी नहीं है, उस समय तो मैं सोच भी नहीं सकता था।
खैर जब मैं हासिये पर खड़ा हो, एक साक्षी भाव से पिता पर आलेख ले उनके सामने खड़ा था, तो मैं हर पंक्ति पर फिसली उनकी नजरों के साथ उनके चेहरे पर उकरती लकीरों की भाव को भी पढ़ने का असफ़ल प्रयास कर रहा था।
पूरे पन्ने को वो पढ़ गए, और कई बार पढ़ते रहे, यहाँ भी मन में एक अपराध बोध के साथ मैं ख़ामोश साक्षी बना रहा।
अचानक वे उठे और मुझे पूछ बैठे, मैं तुम्हें क्रूर नहीं लगता ?
मैंनें सिर्फ़ नही कहा, और कहा मैंनें तराशे गए आपके छात्रों को देख आपको हाथ में छेनी हथौड़ा लिए सिर्फ़ एक कारीगर समझा। मैं पन्नों में तो पीड़ित भर स्वयं को समझा था, लेकिन जब हासिये पर खड़ा हो देखा, तो आप कारीगर दिखे, और मैं बिन तराशा गया बेडौल पत्थर सा दिखा।
यहीं से कलम ने पिता के आशीर्वाद से कलम के सफ़र के रास्ते डाल दिया मुझे।
उन्होनें कहा इसी तरह हासिये पर खड़े होकर साक्षी भाव से समाज और पीड़ित ,शोषित की आवाज़ बनना, स्वयं पीड़ित मत दिखना न ही दिखाना। पीड़ा उनकी कहना जिनके पास अभिव्यक्ति के साधन, शब्द और भाषा नहीं।
यही साहित्य है, जो सबके हित की बात करता है।
लिखना और लिख कर ही कहना, ये वातावरण में एक शोर बन घुलता और विलीन नहीं होता। शब्द लिखे गए ब्रह्म होते हैं, जो निर्माण करता है, एक जीवंत साक्ष्य, जिसे झुठलाना असम्भव है।
मेरे पिता के कथन ही जीवन बन उतर गए दिल मे, और दिल जो कहता है, मेरी कलम कहती जा रही है, अपने सफ़र में।
मेरी कलम यहीं से अपने सफ़र पर है , बिना किसी हताशा के।